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अरुचि वाले को परमार्थ-कथन : विलाप
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बाँधकर ताक में रख दिया। थोड़े-से अरुचिवान श्रोताओं को कथा सुनाने की अपेक्षा उन्होंने चुपचाप बैठकर मनन-चिन्तन करना उचित समझा । इतिहास के पन्ने उलटतेउलटते एक दिन भटजी को ३२ पुतलियों की कथा (द्वात्रिंशत् पुत्तलिका) हाथ लगी। उन्होंने मन ही मन कुछ सोचकर निश्चय किया- "बस, ठीक है, यह कथा रसपूर्ण भी है, लोकजिह्वा पर स्थायी भी है, आध्यात्मिक पुट देकर अगर इस कथा को रसिक ढंग से कहा जाय तो जनता की रुचि इस ओर मुड़ जाएगी।" दूसरे दिन पूनम का चाँद खिला। चौराहे पर उजाले में शामल भट बैठे और अपनी बुलंद आवाज में स्वरचित बत्तीस पुतलियों की नई कथा कहने लगे । एक ने सुनकर दूसरे से, दूसरे ने तीसरे से कहा, यों धीरे-धीरे मानवमेदिनी जमने लगी। गाँव में बात फैल गई"भटजी तो गजब की कथा करते हैं, मन होता है, सुनते ही रहें।" रात को बहुत देर तक कथा का दौर चलता। पहले दिन की अधूरी छोड़ी हुई कथा दूसरे दिन आगे चलाते, अब तो आस-पास के गांवों के लोग भी भटजी की कथा में आने लगे। एक रात को पौ फटते-फटते कथा उठी। भटजी अपने डेरे पर आए, तब भवैयों के टोले को उन्होंने द्वार पर खड़ा देखा । भवयों के नेता ने कहा- 'भटजी ! आपकी यह कथा कितने दिन चलेगी ?"
भटजी बोले-"भाई ! यह पहली पुतली की कथा हुई है, अभी तो ३१ पुतलियों की कथा और बाकी है । यह तो जनता है, जिधर रुचि होती है, उधर मुड़ जाती है।"
यह सुनकर भवैये निराश होगए।
जनता को अब भवैयों के नाटक में रस न था । वह अब शामलभट की कथा में आने लगी थी। अत: दूसरे दिन ही भवैये अपना बोरिया-विस्तर बाँधकर गाँव छोड़कर कब चले गए, किसी को भी पता न लगा।
अतः जनता की रुचि अच्छाई की ओर भी मुड़ सकती है, बुराई की ओर भी। शामलभट की तरह यदि उपदेशकवर्ग वर्तमान युग की जनता की विपरीत मार्ग पर जाती हुई रुचि को वैज्ञानिक ढंग से आध्यात्मिक विषयों की रसप्रद व्याख्या करके मोड़े तो निःसन्देह वह मुड़ सकती है। परन्तु उपदेशक को यह तो अवश्य जांचना-परखना होगा कि अमुक व्यक्ति में पैसे-दो पैसे भर भी आध्यात्मिक रुचि जगी है या नहीं ? यदि मूल में एक कणभर भी आध्यात्मिक रुचि नहीं है तो उसकी उन्मार्ग (वैषयिक) रुचि को सहसा मोड़ना दुष्कर है।
___ अगर ऐसी स्थिति हो तो महर्षि गौतम की इस चेतावनी पर अवश्य ध्यान देना चाहिए कि 'अरुचिवान को तत्त्वज्ञान की बातें कहना बेकार का प्रलाप है।'
सम्यकचि का नापतौल यही कारण है कि यहाँ उन सांसारिक पदार्थों के प्रति रुचियों का तो कोई सवाल ही नहीं है, यहाँ तो आध्यात्मिक ज्ञान, तत्त्वज्ञान, परमार्थ का बोध, निश्चय नय का ज्ञान, निश्चयदृष्टि आदि लोकोत्तर एवं आत्मविकासक, आत्मोन्नतिकारक
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