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________________ अरुचि वाले को परमार्थ-कथन : विलाप ३४१ सामान्यतया रुचि का अर्थ-दिलचस्पी, उत्कष्ठा, उत्सुकता या अभिलाषा होता है । इसके अतिरिक्त रुचि के ये अर्थ भी जैनशास्त्रों की टीकाओं में मिलते हैंप्रीति, चित्त का अभिप्राय, दृष्टि, श्रद्धा, प्रतीति, निश्चय, आत्मा का परिणाम-विशेष, परमश्रद्धा, तत्त्वार्थों के विषय में तन्मयता, सात्म्य एवं नैर्मल्य आदि ।' रुचि ही वास्तव में उपदेश या बोध के योग्य पात्रता की पहिचान है । जिस व्यक्ति की जिस विषय में रुचि होगी, वह उस विषय में सुनने के लिए उद्यत होगा; चाहे भूख-प्यास लगी हो, नींद आती हो, शरीर में पीड़ा या व्याधि भी हो। __ आप कह सकते हैं कि वर्तमान में प्रायः युवकों की रुचि तो चलचित्रों के देखने में, नाचरंग में, ऐश-आराम में अथवा सांसारिक विषयभोगों में है, तब क्या हम उन्हें उपदेश या बोध के पात्र कह सकते हैं ? कदापि नहीं। क्योंकि यहाँ परमार्थबोध या तत्त्वज्ञान-विषयक रुचि का प्रसंग चल रहा है, इसलिए सांसारिक पदार्थों की रुचि यहाँ बिलकुल अभीष्ट नहीं है, बल्कि आध्यात्मिक जगत् में सांसारिक पदार्थों, काम, क्रोध, लोभादि में या विषय-भोगों में रुचि को अरुचि कहा है। सांसारिक पदार्थों में रुचियाँ अनेक प्रकार की हैं, इसीलिए भिन्नचिहि लोकः (जगत् विभिन्न रुचियों वाला है) कहकर जगत के प्राणियों की रुचियों को समुद्र की लहरों या आकाश के समान अनन्त बताया है और उन्हें पकड़ पाना या उनकी पूर्ति कर पाना असम्भव बताया गया है। रुचि का मोड़ अच्छाई-बुराई दोनों ओर यह सत्य है कि आजकल लोकरुचि रागरंग और नाटक-सिनेमा आदि में अधिक है। इसलिए रुचि तो रुचि है, यह अपने आप में अच्छी या बुरी नहीं होती, इस पर जिसका रंग चढ़ा दिया जाए, उधर ही यह मुड़ जाती है। एक पाश्चात्य विचारक रोचीफाउकोल्ड (Rochefoucauld) ने ठीक ही कहा है "The virtues and vices are all put in motion by interests.” "सद्गुण और दुर्गुण तमाम रुचि के द्वारा गतिमान किये जाते हैं।" रुचि को जिधर भी मोड़ दिया जाए, जिस तरफ उसकी नकेल घुमा दी जाए, उसी तरफ वह गति करने लगती है । अगर अच्छाई की ओर मोड़ दिया जाए तो वह १ (क) रुचिः-उत्कण्ठायाम् -दे० ना० वर्ग ७, गा० ८ (ख) रुचिः-परमश्रद्धायां, आत्मनः परिणामविशेषरूपे-वृहत्कल्पसूत्र, उ० १ प्र० (ग) रुचिः-चेतोऽभिप्राये -सूत्र० श्रु० १ (घ) अभिलाषरूपे -स्थानांगसूत्र १० (च) प्रीती -आवश्यक (छ) रुचि:-नैर्मल्ये -उत्तराध्ययन १ अ० (ज) श्रद्धानं रुचिनिश्चय इदमित्थमेवेति -द्रव्यसंग्रह टीका (झ) सात्म्यं रुचिः, तत्त्वार्थविषये तन्मयतेत्यर्थः Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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