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________________ १४ आनन्द प्रवचन : भाग १ राजा अत्यधिक बीमार हो गया। लोगों के कहने से राजा भी उस सेठ के दर्शन करने आ पहुँचा । पर लम्बी प्रतीक्षा करने पर भी सेठ नहीं आया। मुख्य सचिव आदि लोगों ने घर में आकर सेठ से दर्शन देने का आग्रह किया । पर सेठ की आँखें शर्म से नीचे झुकी जा रही थीं। लोगों के अत्यधिक आग्रह पर उसने अपनी शीलभ्रष्टता की कहानी सबके सामने नि:संकोच कह डाली। और यह भी कहा-“अब मुझमें वह शक्ति नहीं है, जिससे आपका रोग-शोक मिट जाए । अतः आप अपने घर जाएँ।" परन्तु पीड़ित लोग कब मानने वाले थे। उन्होंने समझा-सेठ को अपनी शक्ति का मद हो गया है, वह बला टालने के लिए ऐसा करता है। अतः लोगों ने जबरन पकड़ कर सेठ को झरोखे में बिठा दिया। सेठ तो लज्जावश नीचे नेत्र किये बैठा रहा, पर लोगों के रोग उसका दर्शन करते ही सदा की तरह शान्त हो गए। वे स्वस्थ होकर सेठ के गुण गाते हुए रवाना हुए। स्वयं राजा ने उसका बहुत उपकार माना। परन्तु सेठ स्वयं विस्मित था कि यह हो कैसे गया ? मेरा तो शील खंडित हो चुका था, वह विचार कर ही रहा था कि शीलसहायक देव आकर उसकी प्रशंसा करते हुए कहने लगा-यद्यपि तुम्हारा शील खण्डित हो चुका, लेकिन सत्य तो खण्डित नहीं हुआ। तुम्हारी सत्य की ली हुई दृढ़ शरणनिष्ठा तथा सबके सामने अपनी गलती सत्य-सत्य मान लेने की वृत्ति देखकर मैं प्रभावित हुआ और मैंने ही तुम्हारा सारा प्रभाव बढ़ाया है। सचमुच, सेठ की सत्यशरण की दृढ़निष्ठा ने उसके प्रभाव को अक्षुण्ण रखा। इसी प्रकार साधकजीवन में अगर सत्यनिष्ठा कायम रहे तो दूसरे दुर्गुण भी धीरेधीरे लुप्त हो जाते हैं। सत्यशरण : विश्वसनीयता का कारण कई बार सत्यशरणागत व्यक्ति भारी विपत्ति में फंस जाता है, लेकिन अगर उसकी सत्यनिष्ठा अन्त तक कायम रहती है तो वह विश्वासपत्र व्यक्ति बन जाता है। इसीलिए भक्तपरिज्ञा में स्पष्ट कहा है विसस्सणिज्जो माया व होइ, पुज्जो गुरु व लोअस्स । सयणुटव सच्चवाई, पुरिसो सव्वस्स पियो होई ॥ सत्यवादी माता की तरह विश्वासपात्र होता है, गुरु की तरह लोगों का पूजनीय होता है तथा स्वजन की तरह वह सभी को प्रिय होता है। ऐसे कई उदाहरण भारतीय इतिहास के पन्नों पर अंकित हैं । एक दूसरे राज्य के सेनापति ने राजपूतों के किले को चारों ओर से घेरा हुआ था। राजपूतों का नायक रघुपतिसिंह भागकर वन में चला गया। उसे जीवित या मृत पकड़कर लाने वाले को इनाम की घोषणा की गई। अचानक रघुपतिसिंह को खबर मिली कि उसका पुत्र मरणासन्न है। अतः वह पुत्र को देखने की इच्छा से वन से लौटा और घेरा डालने वाली सेना के नायक से निवेदन किया- "मेरा पुत्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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