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________________ बुद्धि तजती कुपित मनुज को ३१७ पसन्द किये और कुभार को उनके पैसे चुकाकर चलने लगीं। रूपाली बा ने भी ४-५ बर्तन पसन्द किये थे, लेकिन पास में छह-सात आने भी न थे । इसलिए उसने कुम्हार से कहा- "इन बर्तनों के दाम अपनी दूकान से ले आना।" कुम्हार ने स्पष्ट कह दिया- "मैं सेठ को अच्छी तरह जानता हूँ । उनके पास दाम लेने मैं नहीं जाऊँगा। वे पैसों के बदले में ऐसी खराब जुआर देते हैं, जिसे मेरे गधे भी नहीं खाते । आपको बर्तन चाहिए तो अपने नौकर को पैसे देकर भेज देना, ये आपके पसन्द किये हुए बर्तन मैं एक ओर रख देता हूँ।" परन्तु पड़ौसिनों के सामने ५-६ आने के लिए कुम्हार द्वारा स्पष्ट कहे हुए वचन रूपाली बा को असह्य अपमानजनक लगे । वह क्रोध में आगबबूला हो गई और वे बर्तन छोड़कर कुछ भी कहे बिना क्रोध में भन्नाती हुई घर आ गई। आते ही मुंह चढ़ाकर कोपभवन में जा बैठी। वह जानती थी, मैं कहूँगी वैसे ही सेठ कर लेंगे। लगभग ११ बजे सेठ दूकान से घर आए। पर सेठानी का कहीं भी पता न चला। आखिर बड़ी मुश्किल से ता चला कि वह कोपभवन में है । सेठजी ने उसे बहुत मनाया, पर वह तो रोष ही रोष में चुप्पी साधे बैठी थी। सेठ ने कहा- “कुछ कहो तो सही, बात क्या हुई ? क्या मुझसे कोई अपराध हो गया है या किसी ने तुम्हें कुछ कह दिया है ? क्या आज तबियत खराब हैं ?" लगभग एक घण्टे तक सिरपच्ची करने के बाद सेठानी ने मुंह खोला— "मुझे क्यों बुलाते हो? इन लाखों रुपयों को झौंक दो भाड़ में।" फिर आज की बीती हुई घटना सुनाते हुए कहा-“गाँव में तुम्हारी इज्जत तो टके भर की भी नहीं है कि कोई तुम्हें दो आने की चीज उधार नहीं देता। वह तीन कौड़ी का कुम्हार कहने लगा-नकद पैसे देकर बर्तन ले जाओ। मैं सेठ के पास बर्तन के दाम लेने नहीं जाऊँगा । वे मुझे पैसों से बदले में ऐसी सड़ी जुआर देते हैं, जिसे मेरे गधे भी नहीं खाते । यों कहकर मेरी पड़ोसिनों के सामने मेरी इज्जत मिट्टी में मिला दी उसने ।" सेठ ने कहा- "पर इसमें क्या हो गया ? हमें ऐसे बुद्ध ओं की बात सुननी ही नहीं चाहिए । सुनी हो तो दिमाग में नहीं रखनी चाहिए।" - यह सुनकर तो सेठानी का रोष सेठ पर और बढ़ गया। वह क्रोध में फफकारती हुई बोली-"बस, बस रहने दो ! आप ही ऐसे हो, कि कोई सिर में मार दे तो भी कुछ नहीं बोलते, मैं इसे सह नहीं सकती। केवल धन ही इकट्ठा करना सीखे हो, प्रतिष्ठा भले ही चली जाए, पर मेरी प्रतिष्ठा गई उसका आपके मन में कोई दर्द ही नहीं है।" यों कहती हुई वह सेठ को उपालम्भ देने लगी। सेठानी के दिमाग में तो अपमानजनित गुस्सा भरा हुआ था। सेठ ने उसे अनेक प्रकार से समझाया, पर वह तो टस से मस न हुई । क्रोध अधिकाधिक भड़कता जाता देख सेठ ने कहा-"क्या कोई ऐसा उपाय है, जिससे तुम्हारे मन का समाधान हो जाए ?" सेठानी ने अपना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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