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________________ हंस छोड़ चले शुष्क सरोवर २८५ है, स्वार्थ में अन्धा होकर वह उपकारी को अपने से दूर हटाने के लिए निष्ठुर बन जाता है, बल्कि वह अपने उपकारी की तंगी हालत में किसी प्रकार का कोई सहयोग नहीं देता, न ही उससे कोई वास्ता रखता है । कदाचित् वह उस स्वार्थी से सहायता के लिए कुछ कहता है तो वह मानवता को भूलकर उसका तिरस्कार और बहिष्कार कर बैठता है। निष्कर्ष यह है कि मनुष्य जब निर्धन, दुर्बल, निःसत्व या अशक्त स्थिति में हो जाता है, तब जिस व्यक्ति का उसने उपकार किया था, संकट के समय उसे सहायता दी थी, वह निष्ठुर होकर उससे बिलकुल मुँह मोड़ लेता है, उससे किनाराकसी कर लेता है, उसके प्रति उपेक्षा और उदासीनता दिखलाता है। चाणक्यनीति में स्वार्थी लोकव्यवहार का सुन्दर चित्रण किया गया है निर्धनं पुरुषं वेश्या, प्रजा भग्नं नराधिपम्, खगा वीतफलं वृक्ष, भुक्त्वा चाभ्यागतोगृहम् । गृहीत्वा दक्षिणां विप्रास्त्यजन्ति यजमानकम्, प्राप्तविद्या गुरु शिष्या दग्धारण्यं मृगास्तथा ॥ 'वेश्या निर्धन पुरुष को, प्रजा शक्तिहीन राजा को, पक्षी फलहीन वृक्ष को, भोजन करने के बाद यजमान को, विद्या प्राप्त हो जाने पर शिष्य गुरु को तथा मृग जल जाने के बाद उस वन को छोड़ देते हैं।' पता नहीं, लोग इतने स्वार्थी क्यों हो जाते हैं ? प्रायः सारे संसार का व्यवहार स्वार्थ के आधार पर ऊलता है । गिरिधर कवि ने एक कुंडलिया में स्वार्थी दुनिया की तस्वीर खींचकर रख दी है सांई सब संसार में मतलब को व्यवहार । जब लगि पैसा गांठ में, तब लगि ताको यार ।। तब लगि ताको यार, यार संग ही संग डोले । पैसा रहा न पास, यार मुख से नहिं बोलै ॥ कह गिरधर कविराय जगत यह लेखा भाई। करत बेगरजी प्रीति, यार बिरला कोई सांई ॥ बहत-से लोग यह कह दिया करते हैं कि भाई-भाई का, भाई-बहन का, पतिपत्नी का, माता-पिता और पुत्र का प्रेम तो अद्भुत होता है, वहाँ स्वार्थ का दाँव कैसे लग सकता है ? पर अनुभव यह कहता है कि ऐसा हो जाए तो परिवार स्वर्ग न बन जाए ! परन्तु अक्सर परिवारों में परस्पर स्वार्थ की टक्करों के कारण परिवार नरक बन जाते हैं । स्वार्थ भी कोई बड़े नहीं पर तुच्छ स्वार्थों को लेकर परिवारों में आए दिन कलह, वैमनस्य, सिरफुटोव्वल और अपना स्वार्थ सिद्ध करने और दूसरों की उपेक्षा करने के प्रसंग होते रहते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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