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________________ २७६ आनन्द प्रवचन : भाग ६ से ये प्रविष्ट हो जाएँ तो मन को तुरन्त ही आत्मिक गुणों-क्षमा, दया, सरलता, सत्य, शान्ति आदि के चिन्तन-मनन में लगा देना चाहिए। कई बार मन यशकीर्ति, प्रसिद्धि, प्रतिष्ठा आदि कृत्रिम आवश्यकताओं को सच्ची आवश्यकताएँ बताकर साधक को बहकाता है, उस समय साधक को तुरन्त फटकारकर मन को वहाँ से हटा देना चाहिए। यतना : आत्मसाक्षात्कार का मार्ग यह निश्चित है कि साधक जब यतना की साधना करता रहता है तो अपने में निहित दोषों को वह एक-एक करके दूर करता है । जब यतना के तीव्र अभ्यास से वह निर्दोष-निष्पाप बन जाता है, तब शुद्ध आत्मा का दर्शन होते उसे देर नहीं लगती। अपने में निहित दोषों को निकालने का इच्छुक यतनाशील साधक प्रतिक्षण सावधान रहता है। वह अपने हितैषियों के द्वारा अपने में प्रविष्ट दोषों को सुझाने, अपनी यतनासाधना की परीक्षा लेने एवं अपने को शुद्ध मार्गदर्शन कराने वालों की बातें सुनकर चिढ़ता नहीं, रुष्ट नहीं होता, अपितु उनकी बातों पर ध्यान देकर तदनुसार अपनी त्रुटियों को दूर करने का प्रयत्न करता है। एक शिष्य ने अपने आचार्य से आत्म-साक्षात्कार का उपाय पूछा। पहले तो उन्होंने समझाया-"यह साधना अत्यन्त कठिन है । इसमें पद-पद पर सावधान रहना पड़ता है। जरा-सी चूक करने पर साधक पतन की खाई में जा गिरता है। क्या तू इतनी कष्टसाध्य क्रिया कर सकेगा ?" पर जब उन्होंने देखा कि शिष्य इस साधना के लिए तीव्र जिज्ञासु है, तब उन्होंने आदेश दिया-"वत्स ! एक वर्ष तक एकान्त में गायत्री मंत्र का निष्काम जाप करो। जाप पूर्ण होते ही मेरे पास आना। और देखना, जाप के दौरान कोई विघ्नबाधा, संकट या भीति उपस्थित हो तो बिलकुल विचलित न होना।" शिष्य ने आचार्य के आदेशानुसार साधना प्रारम्भ की। वर्ष पूरा होने के दिन आचार्य ने झाडू देने वाली मेहतरानी से कहा कि अमुक शिष्य आए तो उस पर झाड़ से धूल उड़ा देना। मेहतरानी ने वैसा ही किया । साधक उसे कद्ध होकर मारने दौड़ा, पर वह भाग गई। वह पुनः स्नान करके आचार्य की सेवा में उपस्थित हुआ। आचार्य ने कहा---"अभी तो तुम सांप की तरह काटने दौड़ते हो । अतः एक वर्ष और साधना करो।" साधक को क्रोध तो आया, परन्तु उसके मन में आत्मदर्शन की तीव्र लगन थी, इसलिए गुरु-आज्ञा शिरोधार्य करके चला गया। . दूसरा वर्ष पूरा करने पर आचार्य ने मेहतरानी से उस साधक के आने पर झाडू छुआ देने को कहा । जब वह आया तो मेहतरानी ने वैसे ही किया । परन्तु इस बार वह कुछ गालियाँ देकर ही स्नान करने चला गया और फिर आचार्यश्री के समक्ष उपस्थित हुआ । आचार्य ने कहा- “अब तुम काटने तो नहीं दौड़ते, पर फुफकारते अवश्य हो अतः एक वर्ष और साधना करो।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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