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________________ यत्नवान मुनि को तजते पाप : ३ २७५ वस्तुतः तीव्रतम क्रोध, मान आदि व्यक्ति के सम्यग्दृष्टित्व का घात करते हैं, उसमें विकृति ला देते हैं। तीव्रतर क्रोध आदि मनुष्य की आत्मनियन्त्रणशक्ति को छिन्न-भिन्न कर डालते हैं, तीव्र क्रोधादि आत्मसंयम की शक्ति के उच्चतम विकास में बाधक होते हैं और मन्द क्रोधादि साधक को पूर्ण वीतरागता की प्राप्ति नहीं होने देते । __ अयतनाशील साधक का मन इन विकृत लहरों पर नाचने लगता है, आवेगों और उप-आवेगों का तूफान असावधान साधक को सहसा पछाड़ देता है। उसके आन्तरिक गुणों पर जो प्रभाव होता है, वह इतना सूक्ष्म होता है कि अनभ्यस्त एवं अजागृत साधक सहसा उसे पहचान नहीं पाता। परन्तु शरीर और मन पर उनका जो प्रभाव होता है, वह तो चिकित्साशास्त्र से हमें ज्ञात होता है। चिकित्साशास्त्र में साफ-साफ बताया गया है कि मानसिक चिन्ता, निराशा, भय, काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य आदि मानसिक आवेगों से हृदयरोग उत्पन्न होता है । भय, चिन्ता, क्रोध, मोह, मद, मत्सरं आदि मानसिक आवेगों से पुरुष का वीर्य पतला हो जाता है और स्त्री को रजोविकार का रोग पैदा हो जाता है । मानसिक चिन्ता, अशान्ति, उद्विग्नता और क्षोभ के कारण राजयक्ष्मा रोग हो जाता है । ईर्ष्या और द्वेष के कारण यकृत और तिल्ली बिगड़ जाती है। क्रोध और घृणा से गुर्दे विकृत हो जाते हैं। रक्त विषाक्त बन जाता है । चिन्ता और उदासी से फेफड़े कमजोर हो जाते है, मस्तिष्क विकृत और रक्त दूषित होता है । विषय-वासना की प्रबलता से वीर्य विकार, प्रमेह आदि रोग उत्पन्न हो जाते है । ईर्ष्या, भय, क्रोध, लोभ, दैन्य, प्रद्वष आदि मनोवेगों की दशा में खाया जाने वाला भोजन अच्छी तरह हजम नहीं होता। इसका कारण यह है कि ईर्ष्या, द्वेष, भय, शोक, क्लेश, निन्दा, घृणा आदि मानसिक आवेगों से प्रभावित दशा में पाचक-रस बहुत अल्पमात्रा में बनते हैं। इसलिए शरीर और मन दोनों दुर्बल हो जाते हैं। चिन्ता, शोक, भय, क्रोध, लोभ आदि से अरुचि और अजीर्ण रोग होता है । चिन्ता आदि से आमाशयिक स्राव कम हो जाता है, भूख नष्ट हो जाती है।' कहने का मतलब यह है कि साधक को मन की इन विकृतियों को आवश्यकता नहीं, बल्कि अनेक शारीरिक-मानसिक व्याधियों और आत्मिक हानियों की जड़ समझ कर इन्हें प्रारम्भ में ही प्रविष्ट नहीं होने देना चाहिए, क्योंकि ये साधक की अयतना (असावधानी) से प्रविष्ट होती है। शारीरिक-मानसिक व्याधियों और आत्मिक हानियों की स्थिति में पापों का आना स्वाभाविक है। पापों का आगमन तो तभी रुक सकता है, जब मन की इन विकृतियों को आते ही खदेड़ दे, कदाचित् लाचारीवश या भ्रान्ति १ देखिये-चरक चिकित्सा स्थान, शुद्धि स्थान, अष्टांगहृदय, सुश्रुत स्थान, आदि आयुर्वेदिक ग्रन्थों में। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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