SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 277
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यत्नवान मुनि को तजते पाप : २ २५७ रहने से आत्मिक शान्ति, आत्मिक ज्ञान एवं आत्मिक आनन्द की निधि को मनुष्य पा सकता है। इसलिए वाणी की क्रिया में प्रवृत्ति की तरह वाणी की क्रिया से निवृत्ति के विषय में विवेक रखना यतनाशील साधक का कर्तव्य है। मानसिक-क्रिया से निवृत्ति का महत्त्व मन प्रवृत्ति का तीसरा साधन है। मन से साधक चिन्तन और विचार करता है। चिन्तन की प्रवृत्ति में जैसे विवेक की जरूरत है, वैसे चिन्तन से निवृत्ति में भी विवेक आवश्यक है। आज लोग अत्यधिक चिन्तन करते हैं, उसे हमें चिन्तन नहीं, चिन्ता कहना चाहिए । आज तो हम देखते हैं कि जैसे गृहस्थों को अपने परिवार की, स्त्री बच्चों की, व्यापार-धन्धे की एवं समाज या सरकार में सम्मान-प्रतिष्ठा की नाना चिन्ताएँ लगी हुई हैं, वैसे ही कई साधुओं को भी अपने सम्मान-प्रतिष्ठा की, अपनी सफलता की, अपने अनुयायी या शिष्य-शिष्या बढ़ाने की, दूसरे सम्प्रदाय या साधु से प्रतियोगिता में आगे बढ़ने की, ये और ऐसी अनेक चिन्ताएँ भूत की तरह लगी हुई हैं । अत्यधिक चिन्ता से उसके प्राणों की ऊर्जा क्षीण हो जाती है। यही हाल अत्यधिक चिन्तन का है। यद्यपि चिन्तन चिन्ता जैसा भयंकर एवं घातक नहीं है, फिर भी चिन्तन से ऊर्जा का धीरे-धीरे ह्रास होता है । एक दिन उसके लिए आवश्यक ईंधन समाप्त हो जाता है। वैसे तो प्रत्येक क्रिया या प्रवृत्ति शक्ति का ह्रास करती है, किन्तु मन की प्रवृत्ति तो शरीर को अत्यन्त थका देती है। शरीरशास्त्री कहते हैं जो आदमी बहुत सोचता है, उसके शरीर में अनेक रोग पैदा हो जाते हैं, उसका पेट ठीक नहीं रहता। उसकी आंतें भी खराब हो जाती हैं। इसलिए चिन्तन से शक्ति का जहाँ व्यय होता है, वहाँ अचिन्तन से शक्ति में वृद्धि होती है। चिन्तन के द्वारा हम इतना नहीं जान सकते, जितना अचिन्तन के द्वारा जान सकते हैं, क्योंकि चिन्तन आत्मा का सहजधर्म नहीं, अचिन्तन आत्मा का सहजधर्म है। मगर अचिन्तन की स्थिति पाना कोई आसान काम नहीं है। विचारों का इतना तीव्र प्रवाह आता है, एक शृंखला के बाद दूसरी और दूसरी के बाद तीसरी शृंखला आती है कि उसका तांता टूटता ही नहीं। ऐसी स्थिति में निर्विचारता या अचिन्तनता की बात सोचना भी कठिन होता है। फिर भी यह तो प्रत्येक साधक को मानना चाहिए कि चिन्तन की अपेक्षा अचिन्तन का महत्त्व बहुत अधिक है। यतना के द्वारा चिन्तन की अति को कम किया जा सकता है, फिर क्रमशः अभ्यास के द्वारा थोड़ेथोड़े समय के लिए ध्यान के माध्यम से अचिन्तन की स्थिति में पहुँचा जा सकता है। चिन्तन-क्रिया से निवृत्ति का सरल उपाय : यतना चिन्तनक्रिया से निवृत्ति या अचिन्तन की स्थिति प्राप्त करने का एक और सहज और सरल उपाय यह है कि इन्द्रियों के प्रयोग के साथ मन का स्पर्श न होने देना। मन को इन्द्रियविषयों से बिलकुल अलिप्त और तटस्थ खड़ा रहने दो। चीन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy