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________________ २५६ आनन्द प्रवचन : भाग ६ यह कितनी बिडम्बना है, भाषाज्ञान के साथ ब्रह्मज्ञान का गठजोड़ करने की। अतः न बोलने से भाषाज्ञान सम्बन्धी अहं से मुक्ति मिल जाएगी। यद्यपि सामान्य आदमी का काम बोले बिना नहीं चलता, बोले बिना उसका जीवन-व्यवहार ठप्प हो जाता है, अतः बोलना पड़ता है। लेकिन बोलने की क्रिया को जब आप प्राथमिकता दे देते हैं, तब वहाँ यतना नहीं रहती। बोलने को अनिवार्य मान लेने से मानसिक क्षमता कम हो जाती है। मन के द्वारा जो बात कही जा सकती थी, उसमें साधक असमर्थ हो गया। प्राचीनकाल के साधक पांच हजार मील दूरी पर बैठे हुए अपने किसी भक्त या शिष्य को कोई बात कहना चाहते थे तो वाणी का प्रयोग नहीं करते थे, वे अपने मन से ही विचारों को प्रेषित कर देते थे । विचारसम्प्रेषण की शक्ति से प्रायः वाणी की प्रवृत्ति कम से कम की जाती थी। मानसिक क्षमता बढ़ाकर ही विचार-सम्प्रेषण किया जा सकता था। आज वाणी का अत्यधिक प्रयोग करके मनुष्य ने अपनी इस मानसिक क्षमता को दुर्बल कर दिया है। प्राचीनकाल में आध्यात्मिक गुरु की आत्मशक्ति इतनी प्रबल होती थी कि उसके पास कोई शंका लेकर बैठता तभी उसका मन ही मन समाधान हो जाता, गुरु को बोलकर कहने की आवश्यकता नहीं होती थी। इसीलिए कहा गया है ____ "गुरोस्तु मौनं व्याल्यानं, शिष्यास्तु छिन्नसंशया: ।" 'गुरु के मौन व्याख्यान से शिष्यों के संशय मिट गये।' श्वेताम्बर मानते हैं कि तीर्थंकर एक भाषा में बोलते हैं, और उपस्थित प्राणिसमूह (मनुष्य और मनुष्येतर) उसे अपनी-अपनी भाषा में समझ लेते हैं। वहाँ कोई अनुवादक या अनुवादक मशीन नहीं थी, फिर भी तीर्थंकर की दिव्यध्वनि विभिन्न भाषाओं में स्वभावतः परिणत हो जाती है। न बोलने से यह शक्ति प्राप्त हो सकती है। __ वचन की क्रिया से निवृत्ति का एक महत्वपूर्ण लाभ है-अनिर्वचनीयता के सिद्धान्त की उपलब्धि । अनिर्वचनीय वह है, जो कहा न जा सके। वेदान्त ने ब्रह्म को अनिर्वचनीय कहा, बौद्धदर्शन ने आत्मा, ईश्वर आदि १० बातों को अव्याकृत कहा इसी प्रकार जैनदर्शन ने कहा कि पूर्ण सत्य अवक्तव्य है-कहा नहीं जा सकता, क्योंकि वस्तु अनन्तधर्मात्मक है। वाणी के द्वारा एक क्षण में हम एक ही धर्म का प्रतिपादन कर सकते हैं, शेष अनन्तधर्म दब जाते हैं, गौण हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में कह दिया-समग्र (पूर्ण) वस्तुतत्त्व अनन्तधर्मा है, इसलिए अवक्तव्य है। फिर चाहे उसका कहने वाला सर्वज्ञ या परमात्मा ही क्यों न हो। इस प्रकार पूर्ण सत्य के विषय में न बोलन। ही असत्य और विवाद से बचने का सर्वोत्तम उपाय है। वचन-निवृत्ति से सबसे बड़ा लाभ है-सत्य की सुरक्षा । लोग अधिक बोलकर बहुत-सी दफा असत्य का समर्थन कर देते हैं। लेकिन न बोलने वाला इस पाप से बच जाता है । गुजराती में कहावत है-'न बोलवामां नवगुण' । न बोलने, मौन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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