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पत्नवान मुनि को तजते पाप : २
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लहर का पता न चले । वे तो अन्तर्यामी हैं, वे भक्त की जोर-जोर से की हुई आवाज को नहीं, किन्तु भक्त के हृदय के भावों को देखते हैं, भगवान के यहाँ भावों की कीमत है, जोर-जोर से बोलकर प्रदर्शन करने की नहीं । यही कारण है, जैन साधु के लिए पहर रात बीतने पर जोर जोर से चिल्लाकर स्वाध्याय, भजन या स्तुति, गुणोत्कीर्तन करने का निषेध है । अगर रात्रि में स्वाध्याय करना हो तो वह स्वाध्यायकाल में ही करेगा, इसी तरह भजन, स्तुति या गुणोत्कीर्तन करना होगा तो वह मन ही मन या अतीव मन्द स्वर में करेगा। वह भक्ति का प्रदर्शन नहीं करेगा। किस समय स्वाध्याय या भजन-कीर्तन आदि के रूप में वाणी की प्रवृत्ति करनी है और किस समय वाचिक क्रिया के रूप में इनसे निवृत्ति करनी है, यह विवेक यतनाशील साधक अवश्य करेगा।
इसी प्रकार साधक को यथासमय भजन या नामजप की प्रवृत्ति अच्छी होते हुए भी इतना विवेक तो अवश्य करना पड़ेगा कि यह भजन या नामजप की प्रवृत्ति कहीं प्रदर्शन या आडम्बर तो नहीं है ? केवल प्रतिष्ठा का साधन तो नहीं बन रही है ? अथवा यह प्रवृत्ति दूसरों को ठगने और अपने चंगुल में फंसाने का साधन तो नहीं हो रही है ? अगर ऐसा हो रहा है तो उससे यतना के बदले अयतना और पाप से मुक्ति के बदले मायारूप पाप की वृद्धि होने की संभावना है।
मुझे एक रोचक दृष्टान्त याद आ रहा है, इस विषय को स्पष्ट करने के
लिए
____ एक बार कहीं भयंकर दुष्काल पड़ गया। इस कारण भूखे मरते हुए कुछ लोग भगवां वस्त्रधारी बाबा–संत बन गए । परन्तु साधु का वेष धारण करने से साधुता नहीं आ जाती, वह तो अन्तर् की चीज है । अन्दर में त्याग, वैराग्य न हो तो बाह्य वेष कभी-कभी धूर्तता का कारण बन जाया करता है। ऐसे ही दो धूतों ने भी साधुवेष धारण कर लिया और वहीं जंगल में आसपास दो पहाड़ियाँ थीं, उन पर अलगअलग अपनी धूनी रमा ली। चरस और गाँजे की मस्ती में वे जोर-जोर से राम-राम की धन लगाते थे, परन्तु उनका मन कहीं और ही माया में था। उनका लक्ष्य थाअपने रामनाम के. भजन एवं कीर्तन से उन पहाड़ियों से गुजरते हुए पथिकों को अपनी ओर आकृष्ट करके लूटना और जान से मार डालना ।
एक दिन एक गाँव के ठाकुर कुछ ऊँट, घोड़े आदि वाहनों के साथ कहीं जा रहे थे । वे उस रास्ते से गुजरे कि ऊपर से 'राम-राम' की धुन सुनाई दी । सोचा'यहाँ कोई बाबा-संन्यासी रहते हैं, चलें उनके दर्शन करके उपदेश के दो शब्द भी सुन लें। अतः ठाकुर साहब पहाड़ी पर आए और बाबाजी को दण्डवत् प्रणाम किया। पर वे तो राम-राम ही पुकारे जा रहे थे।
इसी बीच बाबा ने एक श्वेत वस्त्रधारी पथिक को उन दोनों पहाड़ियों के बीच से गुजरता हुआ देखा । बाबा ने सोचा-'यहाँ ठाकुर छाती पर बैठे हुए हैं, यह खेप
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