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________________ यत्नवान मुनि को तजते पाप : १ २३६ क्रिया एक : दृष्टिबिन्दु तीन मैं आपको एक व्यावहारिक उदाहरण देकर इसे समझाता हूँ एक जगह देवालय बन रहा था। तीन मजदूर धूप में बैठे उसके लिए पत्थर तोड़ रहे थे । एक पथिक वहाँ से गुजरा । उसने उन तीनों में से एक से पूछा- "तुम क्या कर रहे हो ?" उसने दुःखित और बोझिल मन से कहा- 'पत्थर तोड़ रहा हूँ।' वास्तव में पत्थर तोड़ना उसके लिए आनन्द की बात कैसे हो सकती थी, जिसका मन हारा, थका और उदास हो । अत: वह उत्तर देकर फिर उदास मन से पत्थर तोड़ने लगा। पथिक ने दूसरे से यही सवाल पूछा तो उसने कहा--'मैं अपनी रोजी कमा रहा हूँ।' उसने जो कुछ कहा वह उसकी दृष्टि से ठीक ही था। वह दुःखी तो नहीं मालूम हो रहा था, लेकिन उसके चेहरे पर आनन्द का भाव भी नहीं झलक रहा था। निःसन्देह, आजीविका कमाना भी एक काम ही है, पर वह मजदूर की वृत्ति में आनन्ददायक कैसे हो सकता था ? तीसरा व्यक्ति गाना गाते हुए मस्ती से पत्थर तोड़ रहा था। उससे भी पथिक ने वही प्रश्न किया तो वह बोला-'अजी ! मैं अपने भगवान का मन्दिर बना रहा हूँ।' उसकी आँखों में चमक और चेहरे पर दमक थी, हृदय में भव्यभावपूर्ण गीत था। उसकी दृष्टि में पत्थर तोड़ना, मन्दिर निर्माण जितना ही गौरवपूर्ण कार्य था । उसे अपनी क्रिया में अपूर्व आनन्द आ रहा था । ___मैं आपसे पूछता हूँ कि इन तीनों की पत्थर तोड़ने की क्रिया एक होते हुए भी उत्तर तीन तरह के क्यों थे ? इसलिए थे कि क्रिया के प्रति एक की दृष्टि बेगार कीसी थी, दूसरे की थी मजदूरी की और तीसरे की थी समर्पणवृत्ति या भक्तिभाव की। इन तीनों में से तीसरे श्रमिक की दृष्टि अपनी क्रिया के पीछे यथार्थ थी। तात्पर्य यह है कि क्रिया तो वही है, लेकिन दृष्टिबिन्दु भिन्न होने से सब कुछ बदल जाता है । दृष्टिबिन्दु भिन्न होने से फूल ही शूल बन जाते हैं और शूल भी फूल । यतना : विसर्जित एवं समर्पित क्रिया साधक भी किसी प्रवृत्ति या क्रिया में प्रवृत्त होते हुए अपने आपको उसी क्रिया में तल्लीन कर दे, समर्पित कर दे, और वीतराग प्रभु की आज्ञा समझकर भक्तिभाव से उस क्रिया को मस्ती और सावधानी के साथ करे तो उस यत्नवान साधक के पास पाप कहाँ फटक सकते हैं ? पाप वहीं आते हैं, जिस क्रिया के साथ क्रोध, अभिमान, स्वार्थ, लोभ, माया, मोह आदि दूषित भाव हों, वहाँ क्रिया चाहे फूंक-फूंककर की जाए, फिर भी उपर्युक्त विकारों के कारण वह क्रिया यतनापूर्ण नहीं बनती, वह धर्म या पुण्य के बजाय पाप ही प्रतिफल के रूप में लाती है। इसलिए यतनापूर्ण क्रिया का रहस्य यही है कि साधक अपने 'मैं' को विसर्जित कर दे, 'अप्पाणं बोसिरामि' कर दे, और चित्त को उस क्रिया में तन्मय कर दे। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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