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________________ २३८ आनन्द प्रवचन : भाग ६ चित्त होकर प्रभुभक्ति समझकर करे तो एक ही क्रिया से उसका बेड़ा पार हो जाएगा। नंदीषेण मुनि ने अप्रमत्त और यतनाशील होकर साधुओं की वैयावृत्य (सेवाशुश्रूषा) का कार्य तन्मयतापूर्वक किया, जिससे उनका बेड़ा पार हो गया। ___ मासतुष मुनि को ‘मा रुष मा तुष' इन पदों की रटनक्रिया एकाग्रचित्त एवं गुरुभक्ति समझकर करते-करते केवलज्ञान प्राप्त हो गया। एक जैनाचार्य ने इसी बात का समर्थन करते हुए कहा था एक्को वि नमुक्कारो जिणवरवसहस्स वद्धमाणस्स । तारेइ नरं वा नारों वा.................. ..॥ जिनवरों में श्रेष्ठ श्रीवर्द्धमान जिनेश्वर के प्रति की गई एक ही नमस्कारक्रिया नर या नारी को तार देती है - भवसागर से पार लगा देती है। __ क्या आपने मगध सम्राट् श्रेणिक राजा की वह कथा नहीं सुनी कि एक बार सहसा उनके मन में तीव्र भावना जगी की मैं हमेशा भगवान महावीर स्वामी तथा कुछ खास-खास साधओं को ही वन्दन करके बैठ जाता हूँ, आज इच्छा होती है, क्रमशः सभी साधुओं को विधिपूर्वक वन्दना करूं । बस, श्रेणिक राजा क्रमशः वन्दन करते गये। अभ्यास न होने से वे सभी साधुओं को वन्दन न कर पाये, हाँफ गये थे। इसलिए बीच में ही थककर बैठ गये । गणधर गौतम स्वामी की अद्भुत जिज्ञासा स्फुरित हुई, उन्होंने भगवान महावीर से श्रेणिक की आज की वन्दनक्रिया का फल पूछा । प्रभु महावीर ने फरमाया- “गौतम ! इस उत्साह एवं भावपूर्वक वन्दन से श्रेणिक के नरकगति के बहुत-से बन्धन कट गये हैं। अब थोड़े-से बन्धन और रहे हैं।" श्रेणिक ने सुना तो अवशिष्ट साधुओं को वन्दन करने का उत्साह जगा और वह वन्दन करने के लिए उद्यत हुए। लेकिन भगवान महावीर ने कहा-"अब इस वन्दन के साथ कांक्षा का भाव उदित हो गया है, इसलिए इसमें अब नरकबन्धन काटने की शक्ति नहीं है।" बन्धुओ ! वन्दनक्रिया तो वैसी की वैसी ही थी। किन्तु पहले की क्रिया और बाद की क्रिया में अन्तर क्यों पड़ा ? उसका कारण था कि पहले की वन्दन क्रिया निष्काम, निष्कांक्ष थी, बाद की थी सकांक्ष । अत: पहले की वन्दनक्रिया भावयुक्त द्रव्यक्रिया थी जब कि बाद की थी केवल द्रव्यक्रिया । संत कबीर इसी रहस्य को एक दोहे द्वारा खोल रहे हैं नमन नमन बहु आँतरा, नमन-नमन बहु वान । ये तीनों बहुतें नमें, चीता, चोर, कमानं ॥ आचार्य सिद्धसेन इसी बात को प्रगट कर रहे हैं ___ यस्मात् क्रियाः प्रतिफलन्ति न भावशून्याः 'भावशून्य क्रियाएँ वास्तविक प्रतिफल नहीं देतीं।' Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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