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________________ २३६ आनन्द प्रवचन : भाग ६ तच्चित्त, तम्मणे, तल्लेसे, तदज्झवसिए, तत्तिव्वज्झवसाणे, तदट्ठोवउत्त, . तदप्पियकरणे तब्भावणाभाविए। जो भी क्रिया करो, उसमें चित्त को पिरो दो, उसी में तन्मय हो जाओ, लेश्या को भी वहाँ नियोजित कर दो, उसके लिए अध्यवसाय भी वैसा ही बनाओ, उसी को सफल करने की मन में तीव्र तड़फन हो, उसके लिए अपने आपको समर्पित कर दो। उसी के अर्थ में अपना उपयोग लगाओ (उपयुक्त बन जाओ) उसी की भावना से अपना अन्तःकरण वासित कर दो, तुम्हारी वह क्रिया भावक्रिया होगी। यह है यतना का चमत्कार और यतना का विराट रूप ! निष्कर्ष यह है कि यतना में क्रिया के साथ मन का तादाम्य होने से वह क्रिया भावक्रिया बन जाती है, वही फलदायिनी होती है । भावात्मक प्रमार्जन क्रिया ही यतनायुक्त साधक के जीवन में छोटी या बड़ी प्रत्येक क्रिया महत्वपूर्ण है । जैसे प्रमार्जनक्रिया है-साधक जिस उपाश्रय में रहता है, या जिस कमरे में उसका निवास है, वहाँ की सफाई करना है । सफाई करने की क्रिया को साधारण बुद्धि वाले सांसारिक लोग बहुत तुच्छ कह देते हैं। कई धनाभिमानी, पदाभिमानी या सत्ताभिमानी लोग तो तुरन्त कह देते हैं—“सफाई करना तो नौकरों का काम है।" इसी प्रकार टट्टी की सफाई करना तो मेहतरों या हरिजनों का काम कहकर उसे तुच्छ समझते हैं, पर क्या बालक की टट्टी साफ करने वाली माता वालक के लिए तुच्छ या ओछी होती है, वह तो पूजनीय होती है। माता का दर्जा बहुत ही ऊँचा है। बालक की सेवा करने में माता एकदम तन्मय हो जाती है, उसे उस सेवा में आनन्द आता है। इसी प्रकार रुग्ण साधु की सेवा करना साधु के लिए तुच्छ क्रिया नहीं है, वह उस किया को तन्मयता एवं मन लगाकर करता है तो महानिर्जरा कर लेता है। इसी प्रकार सफाई (प्रमार्जन) क्रिया भी साधु के लिए तुच्छ नहीं । वह उसे तुच्छ नहीं समझता, वरन् एकाग्रता एवं यतनापूर्वक करता है तो उस क्रिया से भी महान् निर्जरा कर सकता है। बुजुर्ग साधुओं के मुँह से सुना है कि रजोहरण से यतनापूर्वक प्रमार्जन क्रिया करने से एक तेले (तीन उपवास) का लाभ मिलता है। मान लीजिए दो साधु हैं। दोनों के संघाड़े एक ही उपाश्रय में ठहरे हुए हैं। उनमें से एक संघाड़ा जिस कमरे में ठहरा हुआ है, उस संघाड़े का एक मुनि उस कमरे की सफाई बहुत ही ध्यानपूर्वक रजोहरण से करता है। वह प्रमार्जनक्रिया को बेगार नहीं, किन्तु निर्जरा का कारण समझकर सेवाभाव से करता है। उसे इस प्रकार तन्मयतापूर्वक प्रमार्जनक्रिया से किसी से प्रशंसा पाने, अभिनन्दन प्राप्त करने या नामबरी पाने की कोई इच्छा नहीं है। वह चुपचाप इस कार्य को करता है। दूसरा संघाड़ा उस कमरे के ठीक सामने दूसरे कमरे में ठहरा हुआ है। उस संघाड़े का एक साधु बार-बार कहने पर बिना मन से, वृद्ध साधुओं के लिहाज से उस Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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