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आनन्द प्रवचन : भाग ६
यत्न का सर्वप्रथम अर्थ है—यतना या जयणा । यतना शब्द, यमु उपरमे धातु से बना है । यतना का अर्थ होता है--संयमपूर्वक प्रवृत्ति करना । एक घोड़ा बहुत तेजी से दौड़ रहा है। अगर उस घोड़े के लगाम न लगाई गई हो तो क्या नतीजा होगा ? वह सवार को नीचे गिरा देगा और स्वयं भी ऊजड़ रास्ते पर चल पड़ेगा। ठीक यही हालत अयत्नवान की होती है। अपने जीवन की क्रियाओं और प्रवृत्तियों पर अंकुश न लगाने पर जीवन की क्रियाएँ या प्रवृत्तियाँ उस मनुष्य को पतन के गड्ढे में गिरा देंगी। अगर घोड़े के लगाम लगी हो और वह सवार के हाथ में हो तो वह घोड़े को जिधर ले जाना चाहेगा, ले जा सकेगा। इसी प्रकार जीवन की प्रवृत्तियों या क्रियाओं पर नियंत्रण हो, तो व्यक्ति उसे अभीष्ट दिशा में ले जा सकता है।
किसी को किसी दीवार की चूने से पुताई करनी हो तो वह क्या करता है ? वह एक हाथ से चूने की बाल्टी पकड़ता है, पैरों से सीढ़ी पर खड़ा होकर दूसरे हाथ से पुताई करता है । भिन्न-भिन्न कार्य होते हुए भी हाथ, पाँव, अंगुलियाँ आदि अंगों का लक्ष्य एक ही था-पुताई करना । आँखें यह बताती जाती थीं कि अभी यह जगह छूट गई है, इतनी जगह बाकी है। यहाँ बाल्टी है, यहाँ चूना है । चित्त की स्थिति भी उसी में थी कि चुना गाढ़ा है, ठीक है, पानी कम तो नहीं, पुताई कितनी सुन्दर है, इस तरह चित्तवृत्तियाँ उसकी सजग थीं। मतलब यह है कि कार्य करते समय व्यक्ति की इन्द्रियाँ, मन या चित्त, सब एक ही दिशा में क्रियाशील होते हैं। अतः (१) विश्लेषणात्मक, (२) क्रियात्मक और (३) निरीक्षणात्मक तीनों प्रक्रियाओं के एक साथ चलते रहने से वह व्यक्ति दीवार पर चूने की पुताई सुन्दर कर सका। यदि इनमें से एक भी विभाग कार्य करने से इन्कार कर देता तो गड़बड़ फैलती और कार्य सुन्दर ढंग से पूरा किया जाना सम्भव न होता।
जीवन की प्रवृत्ति के सम्बन्ध में भी यही बात सोचिए । मन, इन्द्रियाँ और बुद्धि आदि पूरी तन्मयता के साथ किसी शुभ कार्य को करते हैं तो उस कार्य में सुन्दरता और व्यवस्थितता आ जाती है। कार्य में मन, इन्द्रियों आदि की तन्मयता भी यतना का एक अंग है। यतना : प्रत्येक प्रवृत्ति में मन की तन्मयता
वास्तव में देखा जाए तो इन्द्रियाँ स्वयं किसी क्रिया को पूर्ण करने में समर्थ एवं स्वतंत्र नहीं होती। मन उनका संचालन और नियंत्रण करता है, इसलिए सफलता या असफलता का मुख्य कारण मन को ही माना जाता है । गाड़ीवान बैलगाड़ी को ले जाकर किसी खड्डे में डाल दे तो दोष गाड़ी का नहीं, क्योंकि उसे तो कोई ज्ञान नहीं होता, वह स्वतःचालित नहीं होती। बैलों को भी दोष नहीं दिया जा सकता, उन बेचारों का भी क्या कसूर था, जिधर नकेल घुमा दी उधर चल पड़े। उनके नथुनों में नाथ पड़ी थी, जिधर का इशारा मिलता था, उधर ही चलते थे।
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