SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 247
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यत्नवान मुनि को तजते पाप : १ २२७ मनुष्य-जीवन भी एक यात्रा है । जिसमें कदम-कदम पर उलझनें, भय, विपत्तियाँ, विघ्न-बाधाएँ, संघर्ष आदि तूफान हैं, जिनसे मन-वचन- शरीररूपी नौका को बचाना आवश्यक है । जो नाव चलाना नहीं जानता है, किन्तु आवेश में आकर अन्धाधुन्ध प्रवृत्ति कर डालता है, वह नौका को तूफानों में छोड़ देता है, जिससे वह मझधार में नष्टभ्रष्ट हो जाती है । परन्तु जो जीवनयात्री नाविक कुशल है, कार्यक्षम है, जीवनपथ की सभी कठिनाइयों को जानता है, प्रवृत्ति में आने वाली विघ्नबाधाओं और संकटों से वह नौका को बचाता हुआ, उस पार तक सकुशल ले जाता है । वह लक्ष्य तक पहुँच जाता है । प्रत्येक प्रवृत्ति कैसे करें ? बन्धुओ ! श्रमण भगवान महावीर के पास भी कुछ नौसिखिए साधक ऐसे आए, जिनके मन में प्रवृत्ति के बारे में पहले कही गई शंकाएँ चल रही थीं। ऐसा तो असम्भव था कि वे कुछ भी प्रवृत्ति न करते । खाने-पीने, उठने-बैठने, चलने-फिरने सोने-जागने और बोलने मौन रखने की सभी प्रवृत्तियाँ करनी अनिवार्य थीं, परन्तु समस्या थी उनके सामने कि इन प्रवृत्तियों के साथ लगने वाले पाप - दोषों से कैसे बचा जाय ? उन्होंने भगवान महावीर के समक्ष सविनय अपनी जिज्ञासा प्रकट की— कहं चरे ? कहं चिट्ठे ? कहमासे ? कहं सए कहं भुजतो भासतो पावकम्मं न बंधई ? हे भगवन् ! साधक कैसे चले ? कैसे खड़ा हो ? कैसे बैठे और कैसे सोये ? तथा किस प्रकार भोजन एवं भाषण करे, जिससे कि पापकर्म का बन्ध न हो । साधक का प्रश्न कुछेक प्रवृत्तियों को गिनाकर मन-वचन - काया से होने वाली समस्त प्रवृत्तियों के बारे में है । श्रमण भगवान महावीर ने उन नवदीक्षित साधकों का मनःसमाधान करते हुए कहा साधक यतना से चले, यतना से खड़ा हो, यतना से बैठे और यतना से सोए । इस प्रकार यतना से भोजन एवं भाषण करने से साधक के पापकर्म का बन्ध नहीं होता । जयं चरे, जयं चिट्ठे, जयमासे जयं सए । जयं भुजंतो भासतो पावकम्मं न बंधई ॥ प्रश्न का समाधान तो कर दिया गया, लेकिन फिर भी दिमाग में दूसरा प्रश्न उठ खड़ा होता है कि यह यतना क्या है ? श्री गौतम ऋषि ने भी तो यही कहा है कि " जो मुनि यतना करता है, उसे पाप छोड़ देते हैं ।' यत्ना का प्रथम अर्थ : यतना, जयणा अगर यत्ना को आप समझ लेंगे तो यतनावान को बहुत आसानी से समझ जाएँगे । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy