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________________ यत्नवान मुनि को तजते पाप : १ २२५ आसक्ति (कांक्षा) दोष से दूषित करके साधक अपनी साधना को चौपट कर देता है। अपने में आसुरी शक्ति को जगा देता है, जिसके फलस्वरूप प्रवृत्ति (कर्म) के साथ दम्भ, दर्प, अभिमान, क्रोध, कठोरता आदि दोष आने स्वाभाविक हैं । इन सब बातों को देखते हुए ही कर्मयोगी श्रीकृष्ण ने अर्जुन के माध्यम से सारे साधकों को प्रेरणा दी है कर्मण्येवाधिकारस्ते, मा फलेषु कदाचन । मा कर्मफलहेतुर्भूः, मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥ 'तेरा कर्म करने में अधिकार है, फल की ओर आँखें उठाने की ओर तेरा अधिकार नहीं है । तू कर्मफल का कारण (कर्म के पीछे अहंकार-ममत्व जोड़कर) मत बन और न ही तेरी आसक्ति अकर्म (कर्म न करने) में होनी चाहिए।' निष्कर्ष यह है कि कर्म या प्रवृत्ति बन्द नहीं करनी है, और न ही उसे छोड़ना है, क्योंकि मनुष्य चाहे कितना ही उच्च साधक क्यों न बन जाए, उसे अपनी शरीरयात्रा के लिए भी कुछ न कुछ प्रवृत्ति करनी ही पड़ेगी । वह प्रवृत्ति के बिना रह न सकेगा । निवृत्ति में भी वह निश्चेष्ट होकर नहीं पड़ा रहेगा, उसका मन कुछ न कुछ मनन-चिन्तन की प्रवृत्ति करता रहेगा। तब सवाल यह उठता है कि जब प्रवृत्ति आवश्यक है और उसके बिना मनुष्य जिन्दा रह नहीं सकता, तब वह उस प्रवृत्ति को कैसे करे ? जिससे प्रवृत्ति के साथ चिपक जाने वाले दोषों से वह बच सके, उन पापों से वह अपने आपको कैसे बचा सकता है, जो प्रवृत्ति करने से हो जाते हैं ? यह तो सिद्ध हो गया कि जीवनयात्रा पूर्ण करने के लिए चलना अवश्य है, उपयोगी है, परन्तु चलें कैसे ? यहीं आकर गाड़ी अटक जाती है । चलना तो तेली के.बैल का भी बहुत है । जैसे कबीरजी ने कहा है "ज्यों तेली के बैल को घर ही कोस पचास।" . परन्तु उस चलने से कोई अभीष्ट प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। कोई व्यक्ति व्यर्थ की दौड़ लगाए, आँखें मंदकर दौड़े तो उसे हम चलना या गति करना नहीं कह सकते । इसीलिए साधना की भाषा में चलने को चारित्र या आचरण कहते हैं। यह सामान्य चलना नहीं, अपितु लक्ष्य की दिशा में, ध्येयानुकूल गति करना है। साधनाजगत् में इस प्रकार के चलने को प्रवृत्ति, गति, चारित्रपालन या क्रिया कहते हैं। साधना-जगत् के पथिकों को लक्ष्य में रखकर ही कबीरजी ने कहा है "चलो चलो सब कोई कहे, पहँचे विरला कोय।" सचमुच, विरले ही साधक ऐसे होते हैं, जो निर्दोष-निष्पाप आचरण–प्रवृत्ति करके लक्ष्य तक पहुँचते हैं। अधिकांश साधक इधर-उधर की संसार की भूल-भुलैया में ही फंस जाते हैं। प्रत्येक प्रवृत्ति के लिए मनुष्य के पास तीन बड़े-बड़े सशक्त साधन हैं—मन, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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