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________________ कृतघ्न नर को मित्र छोड़ते २१६ ब्रह्म काम्पिल्लपुर नगर का राजा था। उसके एक पुत्र था । नाम था — ब्रह्मदत्त, जो आगे चलकर भारत का बारहवाँ चक्रवर्ती सम्राट बना था । जब ब्रह्मदत्त छोटा-सा बालक था, तभी उसके पिता चल बसे थे । ब्रह्मदत्त की माता का नाम चुल्लणी रानी था । ब्रह्मदत्त के पिता ब्रह्मराजा का देहान्त होने पर राज्य संभालने वाला कोई न रहा । ब्रह्मदत्त अभी छोटा ही था । अतः रानी ने ब्रह्मराजा ४ मित्रों को राज्य संभालने के लिए बुलाया । वे चारों बारी-बारी से आकर राज्य संभाल जाते और मित्र के प्रति अपना कर्तव्य अदा करके चल देते । उन चारों में एक मित्र था दीर्घराज । वह अपने मित्रों के प्रति द्रोह करने लगा, अपने मित्र राजा ब्रह्म की रानी चुल्लणी के साथ दुराचार सेवन करने लगा। दूसरे तीन मित्रराजाओं को इस बात का पता चला कि कृतघ्न दीर्घराज के चुल्लणी रानी के साथ अनुचित सम्बन्ध हैं । अतः उन्होंने दोनों गैर- वफादारों को समझाया, फिर भी उन्होंने अपनी बेवफाई न छोड़ी तो तीनों मित्रराजाओं ने दीर्घ राजा की उपेक्षा करके उसे छोड़ दिया। आगे की कहानी लम्बी है । उससे यहाँ कोई प्रयोजन नहीं । कृतज्ञ मित्रों की मैत्री बढ़ती जाती है, घटती नहीं, क्योंकि वे कभी परस्पर द्रोह या कृतघ्नता नहीं करते । भारतेन्दु हरिश्चन्द्र बड़े उदार और दानी थे । उनकी असीम दानशीलता के कारण वे निर्धन हो गए। इसी निर्धनता के कारण वे पत्रों का जवाब नहीं दे पाते थे, क्योंकि उन पत्रों को बन्द करके भेजने के लिए लिफाफे चाहिए थे, वे उनके पास पैसे के अभाव में नहीं थे । अतः पत्र लिख-लिखकर वे मेज पर रख देते । एक दिन उनके एक मित्र ने मेज पर पत्रों का ढेर देखकर पाँच रुपये के टिकट मंगवाकर वे पत्र पोस्ट करवाए । कुछ समय बाद भारतेन्दुजी की स्थिति सुधरी । अतः जब उनके मित्र आते, तो वे चुपके से उनकी जेब में ५ रु० का नोट रख देते । पूछने पर कहते - आपने मुझे पांच रुपये ऋण दिये थे, वे हैं । कई दिनों तक यही क्रम चलता रहा । एक दिन उस मित्र ने कहा – “अब मुझे आपके यहां आना बंद करना पड़ेगा ।" अश्रुपूर्ण नेत्रों से. भारतेन्दुजी बोले – “मित्र ! आपने मुझे ऐसे गाढ़े समय में सहायता दी थी, जिसे मैं जीवनभर नहीं भूल सकता । यदि मैं प्रतिदिन एक पाँच रुपये का नोट देता रहूँ, तो भी आपके ऋण से उऋण नहीं हो सकता ।" - बन्धुओ ! ऐसा कृतज्ञ जीवन बनाओ, जिससे आपको संकट के समय अपने हितैषी (मित्र) जनों का सहयोग मिल सके, अगर आपने कृतघ्नता दिखाई तो सभी हितैषी जन आपका साथ छोड़ देंगे, आपका जीवन दुःखी हो जाएगा । इसीलिए - गौतम ऋषि का संकेत है 'चयंति मित्ताणि नरं कयग्धं' Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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