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________________ २१८ आनन्द प्रवचन : भाग ६ गई। कुछ ही दिनों बाद अहमद ने अपनी परमोपकारिणी माता के लिए ५०० रुपये भेजे । एक पत्र में अपना परिचय तथा यह धनराशि स्वीकार करने का आग्रहपूर्वक लिखा । अहमद के अनुरोध को ग्वालिन माता टाल न सकी । इस प्रकार दूध का बदला चुकाया । हाँ, तो कृतज्ञता से इन दुष्प्रतीकार्य ऋणों को उतारने का प्रयत्न करना चाहिए, कम से कम इन दुष्प्रतीकार्य ऋण वालों के प्रति कृतघ्नता से बचना चाहिए । मित्र कौन ? वे कृतघ्न को क्यों छोड़ देते हैं ? 1 महर्षि गौतम ने कृतघ्नजीवन को इसलिए निकृष्ट बताया है कि कृतघ्न को उसके मित्र छोड़ देते हैं । मित्र का मतलब यहाँ केवल दोस्त ही नहीं है; अपितु माता-पिता, हितैषीजन, उपकारी पुरुष, गुरुजन एवं विश्वस्त जन सभी उसके मित्र हैं । वे कृतघ्न व्यक्ति की कृतघ्नता देखकर उसे छोड़ देते हैं, उसका साथ नहीं देते, उसके ऊपर संकट आया जानकर किनाराकसी कर जाते हैं । कृतघ्न आदमी के साथ हितैषी और उपकारी सज्जनों की मैत्री टिक नहीं सकती। क्योंकि मैत्री का तकाजा है कि अपने पर किसी ने जरा भी उपकार किया हो तो तुरंत उसका प्रत्युपकार करके उस उपकार का बदला चुका दो । अपने पर संकट के समय तो व्यक्ति दूसरों को अपना मित्र बनाकर उनसे चिकनी-चुपड़ी बातें करके कोई सहायता ले ले और जब उन पर कोई संकट आ पड़े तब दूर से ही किनाराकसी कर ले, वे आशा लगाकर प्रतीक्षा में बैठे ही रहें, लेकिन कृतघ्न व्यक्ति उसके उपकारों को भूलकर या याद होते हुए भी 'जानबूझकर आँख मिचौनी कर ले, तब भला मैत्री कैसे रह सकती है ? एक कवि ने दाँत और जिह्वा की मैत्री टूटने का कारण बताते हुए कहा है दन्तान्तः परिलग्न दुःखदकणा निःसार्यते जिह्वया, तां हन्तु ं सरलां सदोद्यमयुता वन्तास्तु हन्तानुजाः । आमूला निपतन्ति दुष्टदशना जिह्वा चिरस्थायिनी, मित्रद्रोहदुरन्तदुष्कृतफलैन मुच्यते कश्चन ॥ 'जब दाँतों के अंदर छोटे-छोटे कण चिपक जाते हैं या फाँस लग जाती है, सब वे बहुत ही खटकते हैं, बेचारी जिह्वा उसे निकाल देती है । किन्तु अनुज (बाद में पैदा हुए) दांत उस सरल जिह्वा को कुचलने के लिए सदा उद्यत रहते हैं । यही कारण है कि दुष्ट दाँत अपनी कृतघ्नता के कारण जड़ सहित गिर जाते हैं और जीभ चिरस्थायी रहती है । सच है, मित्र के प्रति द्रोह करने के भयंकर पाप के फलों से कोई बच नहीं सकता ।' वास्तव में सच्चा मित्र मित्र के द्वारा किये गए उपकार या दिये गए ऋण को कभी भूलता नहीं है । इसलिए ऐसे सच्चे मित्र एक दूसरे को छोड़ते नहीं, परन्तु जो बनावटी मित्र होते हैं, उन्हें सच्चे मित्र छोड़ देते हैं । एक प्राचीन उदाहरण ले लीजिए Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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