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________________ आनन्द प्रवचन : भाग ६ नहीं ली जा सकती । एक कवि ने एक दोहे में शरणदायक की मर्यादा की बात कह दी है— २ जो जन जाकी सरन है, मीन धार सम्मुख चले, बहे जात सरन गहे की लाज । गजराज ॥ अतः जो व्यक्ति स्वयं अपनी रक्षा आपत्ति के समय न कर सकता हो, जिसमें संकट के समय उसे सहन करने की शक्ति और धैर्य न हो, विरोधों के समक्ष स्वयं टिकने की जिसमें शक्ति न हो, वह दूसरों का शरणरूप कदापि नहीं हो सकता । इस दृष्टि से जब हम किसी सत्ताधारी या धनाढ्य की शरण को शरण्य ( शरणदाता) के लक्षण की कसौटी पर कसते हैं तो वह इस कसौटी पर यथार्थ नहीं उतरता । क्योंकि सत्ताधारी शरण तो कदाचित् दे देता है, परन्तु प्रायः देखा जाता है कि जब उस शरणदाता पर कोई आपत्ति आती है, या विरोधी शक्तियों द्वारा उस पर प्रहार किया जाता है, तब वह स्वयं टिक नहीं पाता । और फिर सत्ताधारी की शरण ली जाए या धनिक आदि किसी समर्थ की, उनकी भी जिन्दगी का कोई पता नहीं है, कब, क्या, कितना परिवर्तन हो जाए ! सत्ताधारी की सत्ता और धनिक का धन दोनों परिवर्तनशील हैं । आज ये दोनों हैं, कल नहीं रहते। कोई उससे अधिक शक्तिशाली उस सत्ताधारी की सत्ता छीन सकता है, इसी प्रकार धनिक की सम्पत्ति भी किसी भी निमित्त से समाप्त हो सकती है । तब वही सत्ताधारी या धनिक शरण देने से इन्कार कर देगा या शरणागत की रक्षा करने में असफल हो जाएगा । यही हाल माता-पिता, या कुटुम्ब कबीले आदि का है । वे भी प्रायः स्वार्थ सिद्धि होने पर ही शरण देते हैं । जब भी वे देखते हैं कि अब पुत्र से या इस कुटुम्बीजनसे हमारा कोई स्वार्थ सिद्ध नहीं होता, इसे देना ही देना पड़ता है, अथवा इसके पास अब फूटी कौड़ी भी नहीं रही, यह दर-दर का भिखारी हो गया है, तब वे उसे शरण देने से इन्कार कर देते हैं, या जब वे स्वयं निर्बल, अशक्त एवं निर्धन हो जाते हैं, तब शरणागत की रक्षा करने और उसे सहयोग देने में असमर्थ हो जाते हैं । एक महात्मा थे । उन्होंने धनमद में उन्मत्त एक सेठ से कहा – “कुटुम्ब-परिवार, सगे-सम्बन्धी अथवा मित्र कोई भी साथ में जाने वाला नहीं है, ये सब यहीं रह जाएँगे । अतः एकमात्र सत्यधर्म की शरण लो, जिससे तुम्हारा बेड़ा पार हो जाए ।" सेठ बोला—“आपकी ये सब बातें बनावटी और बहकाने वाली हैं । मेरी पत्नी, पुत्र, भाई, बहन, माता, पिता सभी मेरे सहायक हैं, सभी मेरे लिए प्राण देने को तैयार हैं । दुःख, संकट या रोग के समय सभी मेरी सेवा में तत्पर रहते हैं । " Jain Education International महात्मा ने कहा – “यह ठीक है कि उनकी तेरे प्रति सद्भावना है, वे तेरे से मीठे बोलते हैं, परन्तु कब तक ? जब तक उनका स्वार्थ सधता रहेगा, या जब तक तू कमा- कमा कर देता रहेगा, अथवा जब तक उनके प्राणों पर न आ बनेगी । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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