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________________ सत्यशरण सदैव सुखदायी धर्मप्रेमी बन्धुओ ! आज मैं जीवन के एक महत्त्वपूर्ण अनिवार्य तत्त्व पर आपसे बातें करूंगा। वह तत्त्व है—सत्य ! उत्कृष्ट जीवन का वह आवश्यक तत्त्व है । साधनामय जीवन का वह प्रथम स्तम्भ है, जिसका सहारा लिए बिना साधक आगे चल नहीं सकता। जिसका सहारा लेकर ही जीवन में प्रगति, उत्क्रान्ति या परिवर्तन किया जा सकता है । गौतमकुलक का यह बीसवाँ जीवनसूत्र है । वह इस प्रकार है कि सरणं ? तु सच्चं' शरण क्या है ? सत्य ही तो है । अर्थात्-जगत् में एक मात्र सत्य ही शरण है । साधकजीवन में सत्य की शरण लेना ही श्रेयस्कर है। शरण कब और किसकी ? जब मनुष्य किसी द्वषी, विरोधी या शत्रु द्वारा सताया जा रहा हो, भयभीत हो, या कोई विपत्ति उस पर आ गई हो अथवा कोई धर्मसंकट आ पड़ा हो, उस समय घबराया हुआ मनुष्य किसी ऐसे समर्थ की शरण ढूंढता है, जहाँ उसकी सुरक्षा हो सके, जहाँ उसका सम्मान सुरक्षित रहे । अथवा किसी संताप या दुःख से मनुष्य पीड़ित हो, उस पर मारणान्तक आ पड़ा हो, या असह्य यातना उसे दी जा रही हो, तब मनुष्य किसी अभीष्ट या बलिष्ठ की शरण लेता है, ताकि वह उस कष्ट, पीड़ा, संताप, यातना या दुःख से बच सके या उन्हें समभावपूर्वक सहन कर सके। जिसकी शरण लेने से सुरक्षा न हो, अथवा सम्मान सही-सलामत न रहे, कष्ट, पीड़ा या दुःख से जो न बचा सके, न बचाने का उपाय बता सके, अथवा कष्ट, पाड़ा या दुःख के समय जो न तो सहनशक्ति दे सके, न धैर्य दे सके और न ही जीवन की अटपटी घाटियों में से पार उतरने के लिए यथार्थ मार्गदर्शन दे सके, उसकी शरण लेना व्यर्थ है । ऐसे व्यक्ति या पदार्थ की शरण में आकर व्यक्ति अपनी रही-सही शक्ति भी खो देता है और विपदाओं के भंवरजाल में फँस जाता है। जो व्यक्ति विश्वासघाती है, वचन देकर बीच में ही धोखा दे देता है, जो मायाचारी है, झूठफरेब करता है, वह चाहे कितना ही सम्पन्न हो, भौतिक शक्तिमान हो, उसकी शरण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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