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________________ १९६ आनन्द प्रवचन : भाग ६ सब पर विजयश्री प्राप्त करा सकता है, वह है-आत्मबल । और वह आत्मबल सत्यनिष्ठा से प्राप्त होता है। इसी कारण सत्य के द्वारा प्राप्त होने वाली आत्मशक्ति के आगे सत्ता की—दण्ड की शक्ति पानी भरती है। सत्य से मन और वाणी की शुद्धि हो जाती है ।' इनके शुद्ध होते ही आत्मा भी शुद्ध हो जाती है। शुद्ध आत्मा विकाररहित होकर मनुष्य को सदविचारों और सत्कार्यों में ही प्रेरित करती है। सत्य की शक्ति से ओतप्रोत शुद्ध आत्मा सत्याचरण करने की ही साक्षी देती है, वह असत्कार्य का समर्थन नहीं करती। सत्य की यह शक्ति ही आध्यात्मिक श्री है। जब यह शक्ति आत्मा में से निकल जाती है तो आत्मा को बुरे विचार घेर लेते हैं, बुरे कार्यों में वह प्रवृत्त होने लगती है । 'सत्य हृदय का चक्षु है' यह बात तत्त्वशियों ने बताई है । सत्यनिष्ठ के जब हृदयचक्षु खुल जाते हैं तो वह जीवों की गति-आगति, उनकी वेदनाओं, सुखदुःखों, उनके मनोभावों का संवेदन भलीभाँति कर सकता है । इस प्रकार सत्यनिष्ठा से वह आत्मौपम्य भाव की पराकाष्ठा तक पहुँच जाता है । यही अध्यात्मश्री की प्राप्ति का लक्षण है। एक पाश्चात्य विचारक डब्ल्यू आर० एल्जर (W. R. Alger) ने अध्यात्मश्री का मापदण्ड बताते हुए कहा है "The wealth of a soul is measured by how much it can feel, its poverty by how little.” "आत्मा की श्री का नाप यह है कि वह कितना अधिक संवेदन कर सकती है; और आत्मा की दरिद्रता का नाप यह है कि वह कितना कम संवेदन करती है।" । परन्तु जैसा कि मैंने कहा-सत्यनिष्ठा से जब व्यक्ति आत्मौपम्य की पराकाष्ठा तक पहुँच जाता है तो उसे ब्रह्मप्राप्ति या ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति होने में देर नहीं लगती, चाहे उसने किसी विश्वविद्यालय में किसी गुरु से साक्षात् यह आत्मविद्या नहीं पढ़ी हो। ब्रह्मचारी सत्यकाम ने जब हरिद्र मतपुत्र महर्षि गौतम से ब्रह्मज्ञान एवं ब्रह्मसाक्षात्कार प्राप्त करने की इच्छा से उनके आश्रम में जाना चाहा तो अपनी माता से पूछा- “माँ ! मेरा नाम और गोत्र क्या है ?" माता ने निखालिस हृदय से कहा-पुत्र ! निराश्रित होने के कारण यौवनावस्था में मुझे अनेक गृहस्वामियों की परिचर्या करनी पड़ी थी, उनमें से तू किसका पुत्र है, यह मैं भी नहीं जानती। हां, मेरा नाम जाबाला है और तू अपने जीवन में सत्यकाम है, इसलिए जब ऋषि तेरा नाम पूछे तो अपना नाम सत्यकाम जाबाल बता देना।" सत्यकाम महर्षि गौतम के आश्रम में पहुँचा। जब उसका नाम और गोत्र उन्होंने पूछा तो उसने अपनी माँ कहे शब्द अक्षरशः दोहरा दिये। १ 'मनः सत्येन शुद्ध यति'-मनु, ५/१०६, 'सत्येन शुद्ध यते वाणी'-तत्त्वाम त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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