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________________ सत्यनिष्ठ पाता है श्री को : २ १९५ चूंकि सत्य ज्ञान और चारित्र का मूल है। वह स्वयं अपने आप में एक आध्यात्मिक साधना है, तब उससे आध्यात्मिक श्री वृद्धि न हो, ऐसा हो नहीं सकता। वास्तव में सत्य एक ऐसी आध्यात्मिक शक्ति है, जो सत्यनिष्ठ को निर्विकार, निर्भय एवं निर्लिप्त जीवन जीने की प्रेरणा करती है, तथा जो देश, काल, पात्र एवं परिस्थितियों से प्रभावित नहीं होती। सत्य से अध्यात्मश्री प्राप्त होने के सम्बन्ध में पाइथागोरस (Pythagoras) कहता है "Truth is so great a perfection, that if God would render himself visible to men, he would choose light for his body and truth for his soul." “सत्य इतना महान् परिपूर्ण है कि अगर परमात्मा किसी के समक्ष प्रकट होना चाहे तो उसे प्रकाश से अपना शरीर और सत्य से अपनी आत्मा को धारण करना पड़ेगा।" __ सत्य को जब भगवान कहा गया है तो जिस हृदय में सत्यरूप भगवान विराजमान हो गए वह जगत् का मालिक एवं शाहंशाह बन सकेगा, क्योंकि फिर उसमें काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर आदि दुर्गुण रहेंगे नहीं और इस प्रकार शुद्ध, निष्कलंक, निर्विकार, निर्मल आत्मश्री वहाँ जगमगाने लगेगी, जिसके प्रकाश में व्यक्ति अपने हिताहित, कर्तव्याकर्तव्य को देख सकेगा। अतः सत्यनिष्ठा आत्मोन्नति करने वाले सारे ही सद्गुणों-विनय, नम्रता, अहिंसा, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रहवृत्ति, तप, क्षमा, दया आदि की आधारशिला बनेगी। इससे यह सिद्ध हो जाता है कि सत्य में स्थित होने से आत्मा समस्त गुणरूपी कलाओं से खिल उठेगी। सत्यनिष्ठ व्यक्ति अपने स्वरूप में स्थिर होकर गुणरूप आत्मश्री को शुद्ध रूप में प्राप्त करता है, जिससे वह स्वतः ही शुद्ध आत्मा के चार गुणों-आत्मसुख, आत्मज्ञान, आत्मदर्शन और आत्मवीर्य को प्राप्त कर लेता है। अतः अध्यात्मश्री को आसानी से प्राप्त करने के लिए जीवन को एक सर्वोत्तम आधारशिला पर टिकाना आवश्यक होता है और वह आधारशिला है-सत्य । पाश्चात्य लेखक इमर्सन के सुवाक्य में भी इसी बात का समर्थन मिलता है "The finest and noblest ground on which people can live is truth." 'जिस सुन्दरतम और श्रेष्ठतम आधार पर जनता अपना जीवन टिका सकती है, वह है-सत्य।' ___चूंकि सब बलों में उत्कृष्ट बल आत्मबल है, जिसके जरिये सर्वत्र विजयश्री प्राप्त होती है । इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, चित्त आदि सबकी गुलामी से मुक्त करके जो इन १ जैसा कि योगशास्त्र (२।६३) में कहा है "ज्ञानचारित्रयोर्मूलं सत्यमेव वदन्ति ये । धात्री पवित्रीक्रियते तेषां चरणरेणुभिः ।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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