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________________ १८६ आनन्द प्रवचन : भाग ६ विश्वास पर ले आये। जब भीमाशाह को वह थैली खोलकर दिखाई तो खोटो माहरें देखकर उन्होंने भीलों से कहा-'भाइयो ! ये खोटी मोहरें मेरे पुत्र ने तुम्हें दे दी हैं, लो, मैं तुम्हें दूसरी चिट्ठी असली मोहरें देने के लिए लिख देता हूँ। अन्यथा, तुम लोगों का सदा के लिए विश्वास उठ जाएगा।' भीलों पर भीमाशाह की इस सत्यवाणी का अद्भुत प्रभाव पड़ा । और उन्होंने यह कहकर उन्हें बन्धनमुक्त कर दिया कि ऐसे महान् सत्यवादी को हम हैरान नहीं कर सकते।' भीलों ने उन्हें वह थैली भी वापस कर दी। भीमाशाह ने भीलों को खेती के लिए जमीन और साधन दिलाने का वचन दिया, जिससे उन्होंने लूटपाट करना छोड़ दिया। ___ इस प्रकार सत्यनिष्ठ को सत्यवाणी के द्वारा मनोवाञ्छित कार्यसिद्धि रूपी श्री की प्राप्ति होती है । इसलिए सत्यवाणी श्री प्राप्ति का प्रथम स्रोत है । सत्यनिष्ठ के लिए श्रीप्राप्ति का दूसरा मुख्य स्रोत है-सत्यव्यवहार । सत्यनिष्ठ के व्यवहार में सरलता होती है। वह अमृत के समान मधुर लगता है । सत्यव्यवहार अपने अन्तःकरण में शान्ति और सन्तोष पैदा करता है, और दूसरों को भी अग्रगामी बनाता है। सच्चाई और सज्जनता का व्यवहार जिस किसी के साथ भी किया जाता है वह प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। सत्यव्यवहार से परस्पर स्थिर घनिष्ठता और मित्रता उत्पन्न होती है। इसीलिए सत्यनिष्ठ पुरुष किसी के भी साथ कपटयुक्त व्यवहार नहीं करता। कोई उसके साथ विद्वषपूर्ण व्यवहार करे तो भी वह किसी को धोखा नहीं देता। सत्यनिष्ठ के व्यवहार में बनावटीपन, ढोंग, छल, कपट और झूठफरेब के झोंपड़े नहीं होते, जो थोड़ी-सी आँधी चलते ही उखड़कर दूर जा पड़ते हैं, अपितु सत्य व्यवहार के ईंट और गारे से बना हुआ जीवन का मकान तेज तूफानों में भी सुदृढ़ रहता है । सत्यनिष्ठ व्यक्ति संसार में निर्भय, निश्चिन्त और स्पष्ट होकर व्यवहार करता है। इस संघर्षपूर्ण संसार में सत्यव्यवहार से ही विजयश्री प्राप्त होती है, इसका एकमात्र कारण यह है कि सत्यव्यवहार से सहयोग और विश्वास की प्राप्ति हो जाती है। संसार में सभी कर्मों की गति-प्रगति विश्वास पर निर्भर है। व्यापारी या उद्योगपति अपने सत्यव्यवहारी मुनीम-गुमाश्तों के विश्वास पर लाखों रुपयों की सम्पत्ति छोड़ देता है। सत्यव्यवहार करने वाले पर कदापि अविश्वास नहीं होता। और विश्वास के कारण ही सत्य व्यवहार वाले के यहाँ लक्ष्मी बरसने लगती है। विक्रम संवत २००६ की घटना है। बीकानेर के महाराजा करणीसिंहजी ने स्थानीय प्रसिद्ध सर्राफ श्री ताराचन्द जी केसरीचन्दजी को सोने की चार सौ तश्तरियाँ बेचीं। साथ में शर्त थी—सवा आना तोला खाद काटने की। परन्तु महाराजा के कामदार ने भूल से सवामाशा के हिसाब से खाद काटकर बिल बना दिया। वह बिल जब ताराचन्दजी ने देखा तो बोले-'यह बिल गलत बनाया गया है। हमारे सवा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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