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सत्यनिष्ठ पाता है श्री को : २
विप्रकर्षत्यलक्ष्मीं ।
कामं दुग्धे कीर्ति सूते दुष्कृतं या हिनस्ति ॥
तां चाप्येतां मातरं मंगलानां,
धेनुः धीराः सुनृतं वाचमाहुः ।।
'सत्यवाणी को धीर विद्वान् ऐसी गौ कहते हैं, जो कामना की पूर्ति करने वाली कामधेनु है, वह अलक्ष्मी - दरिद्रता को दूर भगा देती है, कीर्ति रूपी बछिया को पैदा करती है । वह मंगलों की माता है और दुष्कृतों - पापों को नष्ट कर देती है ।'
सचमुच यदि सत्यार्थी साधक सत्यवाणी रूपी कामधेनु को पाले-पोसे और प्रत्येक क्रिया उसी की प्रेरणा से करे तो वह उसकी प्रत्येक शुभेच्छा और सत्यसंकल्प को पूर्ण करती है । उसके मनोवांछित सभी सत्कार्यक्रम पूर्ण होकर रहते हैं ।
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जिसकी वाणी में सचाई होती है, वह व्यक्ति कदाचित् किसी कारणवश बन्धन में डाल दिया जाए, फिर भी जब उस व्यक्ति को उस सत्यवादी की सत्यता का पता लगता है तो उसे छोड़ दिया जाता है ।
भीमाशाह नाम के एक वणिक् बहुत ही सत्यवादी हो गये हैं । उनकी सत्यवादिता से प्रभावित होने के कारण उनकी दूकान पर ग्राहकों की भीड़ लगी रहती थी । इस प्रकार सत्यवाणी के कारण उन्होंने प्रसिद्धि भी प्राप्त की और लक्ष्मी भी । एक बार भीमाशाह की सत्यवादिता की कसौटी हुई । वे अकेले एक जंगल के मार्ग से होकर किसी कार्यवश जा रहे थे। रास्ते में भीलों ने उन्हें देखा और उनकी वेशभूषा से जान लिया कि यह व्यापारी बनिया है । अतः उन्हें लूटने के इरादे से घेर लिया और कहा - 'जो कुछ भी तुम्हारे पास हो रख दो । अन्यथा जान से मार दिये जाओगे ।' भीमाशाह सत्यवादी थे । प्राणों का संकट आने पर भी वह झूठ नहीं बोलते थे । उन्होंने कहा - ' इस समय तो मेरे पास सिर्फ कुछ रुपये हैं । कहो तो दे सकता हूँ ।'
भीलों ने कहा- 'थोड़े-से रुपयों से क्या होगा ? यदि तुम्हें बन्धनमुक्त होना है तो अपने पुत्र पर चिट्ठी लिखकर दो-पाँच सौ स्वर्णमुद्राएँ हमारे आदमियों को दे देने के लिए । जब हमारे आदमी ५०० स्वर्ण मोहरें लेकर आ जायेंगे, तभी तुम्हें हम छोड़ेंगे ।'
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भीमाशाह ने अपने पुत्र के नाम एक दे देने के लिए लिखकर दे दी । चार भील उस में गये, उनके लड़के को वह चिट्ठी बताई । फँस गये लगते हैं ।' अतः ५०० में नकली खोटी ५०० मोहरें
चिट्ठी पाँच सौ स्वर्णमुद्राएँ भीलों को चिट्ठी को लेकर भीमाशाह के गाँव लड़के ने सोचा- 'पिताजी विपत्ति में असली सोने की मोहरें देने के बजाय, उसने एक थैली भरकर उन भीलों को वह थैली पकड़ा दीं। भील
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