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________________ को नहीं जानते ३६६; जब तक अनुभूतियुक्त प्रकाश न हो, प्रकाश के दावेदार न बनो ३६८, पहले स्वयं शास्त्रों के रहस्य को समझो ३६६ । ३६. विक्षिप्तचित्त को कहना : विलाप ३७१-३८६ विक्षिप्तचित्त क्या और क्यों ? ३७१, विद्यालय में प्रवेश से पहले लामा की कठोर परीक्षा-दृष्टान्त ३७३, चित्त की एकाग्रता से अद्भुत चमत्कार ३७५, एकाग्रचित्त से होने वाला संकल्प : सर्वोपरि शक्ति ३७६, दातम की अद्भुत स्मरणशक्ति चित्तकी एकाग्रता से—दृष्टान्त ३७६, चित्तविक्षिप्त क्यों और उसमें बोध क्यों नहीं टिकता? ३८०, विक्षिप्तचित्त बदलता रहता है ३८२, चित्त को विक्षिप्त होने से बचाने के उपाय ३८३, पहला उपाय-चित्त की शक्तियों को नष्ट न होने दें ३८३, दूसरा उपाय-शक्ति का उत्पादन शिथिल न होने दें ३८४, तीसरा उपाय-चित्त में निहित और संचित शक्तियों को छिपाकर न रखे ३८५, चौथा उपायचित्त को अशुद्ध और अस्वस्थ न होने देना ३८५, चित्त की उच्छृखलता को न रोकने से भी चित्त विक्षिप्त हो जाता है ३८६, चित्तविक्षिप्त : उपदेश के लिए कुपात्र ३८७, व्यवहार में भी विक्षिप्त चित्त को कोई बात नहीं कहता ३८८ । ४०. कुशिष्यों को बहुत कहना भी विलाप ३६०-४१३ शिष्य लोलुपता : कुशिष्यों का प्रवेश-द्वार ३६०, दूरदर्शी गुरु द्वारा उम्मीवार की परख ३६२, गुस्सेबाज पति को झुकना पड़ादृष्टान्त ३६२, अधिक सन्तान और अधिक शिष्य : अधिक दुःख ३६५, कुशिष्य : गुरु को बदनाम और हैरान करने वाले ३६७, गुरु लोभी और शिष्य लालची ३६८, गुरु तो बन सकता हूँ, शिष्य नहीं ३६८, गुरु के कर्तव्य अदा न करने वाले शिष्यलिप्सु ३६६, आचार्य वृद्धवादी और सिद्धसेन का दृष्टान्त ४००, सुशिष्य कौन, कुशिष्य कौन ? ४०२, गुरु के प्रति पूर्ण समर्पण और अटूट विश्वास तथा सेवा, विनय आदि सुशिष्य के गुण ४०३, सुशिष्य-कुशिष्य को पहचानने की प्रथम सरल विधि ४०४, दूसरी विधि-कठोर परीक्षा द्वारा ४०५, तीसरी विधि-सत्कार्यों या कर्तव्यों से परखने की ४०८, गुणवान शिष्य की चार विनय प्रतिपत्तियाँ ४०८, विनयवान शिष्य पंचक ने अपने गुरु राजर्षि शैलक की आत्मजागृति की ४०६, कुशिष्यों को ज्ञान देना सर्प को दूध पिलाना है ४१०, कुशिष्य उपदेश के पात्र क्यों नहीं? ४१२ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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