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________________ हृदयहीन हो जाता है २६८, मूढ़ स्वार्थी अपनी ही अधिक हानि करते हैं ३०२, स्वार्थ की अपेक्षा परमार्थ से अधिक लाभ ३०३, परमार्थ-सुख श्रेष्ठ या स्वार्थसुख ३०३, स्वार्थपरता का दंड ३०४ दोनों में से एक जीवन चुन लीजिए ३०५। ३६. बुद्धि तजती कुपित मनुज को __३०६-३२६ स्थिरबुद्धि के अभाव में ३०६, किसकी बुद्धि स्थिर नहीं रहती ? ३०८, कुपित का लक्षण क्या और कैसे ? ३०६, कुपित का अर्थ सभी मनोविकारों से उत्तेजित हो जाना ३१०, क्रोध से कुपितः अत्यधिक प्रकट ३१०, क्रोध का प्रकोप : अतीव भयंकर व हानिकर ३१२, क्रोधावेश का दुःखद परिणाम ३१४, वर्षों तक चलने वाला क्रोध-रूपाली बा का दृष्टान्त ३१६, यतिजी भी सच्चे यति न थे ३१८, विद्या का दुरुपयोग : घोर अकाल ३१६, पाप का फल ३२०, क्रोधाविष्ट होना कार्यसिद्धि में पहला विघ्न ३२१, द्वष और वैर से कुपित होने पर ३२३, जो कुपित नहीं होता वही बुद्धिमान पुरुष है ३२४, काम-कुपित होने पर ३२५, मोह से कुपित होने पर ३२७ । ३७. अरुचि वाले को परमार्थ-कथन : विलाप ३३०-३५२ वक्ताओं की बाढ़ ३३०, उपदेशकों का अविवेक ३३२, उपदेशक या वक्ता कैसे हों? ३३५, श्रोताओं को समझाकर कहने का प्रभाव ३३८, उपदेश के योग्य पात्र कौन, अपात्र कौन? ३३६, अरुचि क्या, रुचि क्या ? ३४०, रुचि का मोड़ अच्छाई-बुराई दोनों ओर ३४१, सम्यक् रुचि का नाप-तौल ३४३, सम्यक्रुचिसम्पन्न जनक विदेही-दृष्टान्त ३४५, रुचि के तीन प्रकार ३४६, सम्यक्रुचि के दस भेद ३४७, लाल-बुझक्कड़ श्रोताओं का रोचक दृष्टान्त ३४८, अरुचिवान को कुछ भी हित की बात कहना विलाप है ३४६, चित्त संभूत का दृष्टान्त ३५० । ३८. परमार्थ से अनभिज्ञ द्वारा कथन : विलाप ३५३-३७० ___अज्ञानी अज्ञानी का मार्गदर्शक : अनिष्टकर ३५३, साधु-साध्वियों द्वारा बताये गये अधूरे अर्थ के दुष्परिणाम ३५५, अन्धे मार्गदर्शक : अन्धे अनुगामी ३५६, ऐसे लालबुझक्कड़ों से सावधान ३५६, अपना अज्ञान स्पष्ट स्वीकारो ३६०, अज्ञानी में प्रायः पूर्वाग्रह और अहंकार ३६०, यथार्थ ज्ञान बिना कथन करना हास्यास्पद ३६१, परमार्थ के अज्ञानी : ऊँटवैद्य की तरह ३६२, तत्त्वज्ञानी पढ़ने-सुनने मात्र से नहीं, प्रत्यक्ष तीव्र अनुभव से ३६३, वेदान्त एवं एकान्त निश्चयनय अनिष्टकर-दृष्टान्त ३६४, स्वयं में प्रकाश नहीं वे दूसरे प्रकाश Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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