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________________ संभिन्नचित्त होता श्री से वंचित : २ १५३ अंगूठाटेक व्यक्ति भी स्थिरचित्त के बल पर इंजीनियरों के बराबर बेतन लेते और उन्हें परामर्श देते सुने गये हैं। केवल थ्योरी और नक्शों से सीखी तकनीकी विद्या किसी को उतना कुशल नहीं बना देती, जितना कि एकनिष्ठ चित्त से किया गया काम उसे उस काम में दक्ष बना देता है। कृषि के स्नातक की उपाधि लेकर आने वाला युवक क्या उस वृद्ध अनुभवी किसान की बराबरी कर सकता है जिसका पसीना खेत की मिट्टी में बहा है ? निष्कर्ष यह है कि व्यावहारिक क्षेत्र में किसी एक कार्य में पूर्ण पारंगत और दक्ष बनने के लिए और सब बातों से चित्त को हटाकर एकमात्र उसी कार्य में निश्चयपूर्वक चित्त को लगाना आवश्यक है । चित्त की चंचलता से शक्तियों का ह्रास होता है, सारी शक्तियां बिखर जाती हैं, या अनुपयोगी होकर नष्ट हो जाकी हैं। जैसे मार्ग में जब बैलगाड़ी कहीं फँस जाती है तो गाड़ीवान दो क्षण सुस्ताकर अपनी अव्यवस्थित शक्तियों को एकाग्र करके जोर लगाता है, जिससे गाड़ी अवरोध को दूरकर बाहर आजाती है, वैसे ही चित्त की एकनिष्ठा से कार्य करते हुए कोई अवरोध आ जाए तो व्यक्ति द्वारा अपनी सारी अव्यवस्थित शक्तियों को एकमात्र उसी अवरोध को दूर करने में लगा देने से व्यावहारिक क्षेत्र में सफलता मिलती है । आध्यात्मिक क्षेत्र के सम्बन्ध में भी यही बात है। चित्त को उसमें सम्पूर्णरूप से नियोजिन करने से समस्या हल करली जाती है । मैं आपको व्यावहारिक क्षेत्र का एक उदाहरण देकर इस बात को समझा दूं -सर वाल्टर स्काट की गणना अंग्रेजी के सर्वश्रेष्ठ लेखकों में की जाती है। प्रारम्भ में उन्हें पढ़ने का शौक था, लिखने की ओर कोई ध्यान न था। किन्तु यदा-कदा पढ़ते-पढ़ते वे उस पढ़े हुए पर चिन्तन-मनन करते रहते थे। इससे उनकी मौलिक विचारशक्ति जाग उठी। अब उनकी रुचि पढ़ने के साथ-साथ लिखने की ओर झुक गई। वे जो कुछ भी लिखते, उसे विविध पत्र-पत्रिकाओं में भेजते, किन्तु कई लेख वापस आने लगे, तब मित्रों ने सलाह दी–“अब लिखना बन्द कर दो । व्यर्थ समय बर्बाद न करो।" परन्तु वाल्टर स्काट एकनिष्ठा पर विश्वास रखते थे, इसलिए उन्होंने अपना प्रयत्न जारी रखा। जो लेख वापस आते, उन्हें वे ध्यान से पढ़ते, उनकी कमियाँ खोजते और पत्र-पत्रिकाओं में निर्धारित विषय से कहाँ विसंगति हुई, इसकी छानबीन करते रहते । यों करते-करते धीरे-धीरे लेखन में सुधार करके उन्होंने उन लेखों को प्रकाशन योग्य बना दिया। निरन्तर अभ्यास ने लेखन दक्षता बढ़ा दी और उनके लेख पत्र-पत्रिकाओं में धड़ाधड़ छपने लगे। उनकी माँग भी आने लगी। __अगर वाल्टर स्कॉट प्रारम्भिक असफलता से हतोत्साह होकर लेखन कार्य छोड़ देते तो अवश्य ही वे इस क्षेत्र में मिलने वाली योग्यता, सफलता और श्रीसम्पन्नता से वंचित रह जाते। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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