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________________ १५२ आनन्द प्रवचन : भाग १ न शुद्धसिद्धान्तपयोधिमध्ये, धोतोऽप्यगात्तारक ! कारणं किम् ? चंचल नेत्रवाली स्त्रियों के मुख को देखने से चित्त में जो राग का रंग लग गया है, वह शुद्ध सिद्धान्त रूपी समुद्र में धोने पर भी नहीं गया, हे तारक ! इसमें क्या कारण है ? __ क्या इस प्रकार का अस्थिरचित्त कभी एकनिष्ठा से प्रभूचरणों में लग सकता है ? प्रभुचरणों में लगना तो दूर रहा, वह नैतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक विषयों में भी नहीं लग सकता। हमारे यहाँ एक कहावत प्रचलित है _ 'काम काम को सिखाता है।' इसमें जरा भी असत्य नहीं है, कार्य करते रहने से मनुष्य की उस कार्य में कुशलता बढ़ती है, किन्तु क्या उस आदमी में कार्य कुशलता ला सकती है जो आज तो अध्यापक का काम करता है, कल मशीनों के कारखाने में चला गया। कुछ दिन किसी सरकारी ऑफिस में नौकरी की, फिर कोई छोटा-मोटा व्यवसाय करने लगा, आज बजाज का काम करता है, कल बिसातखाना खोल दिया ? आशय यह है कि जो व्यक्ति लाभ के लोभ में आकर परेशानी से बचने या देखादेखी अपने चित्त की अस्थिरता के कारण जब-तब अपना व्यवसाय बदलता रहता है, या काम. बदलता रहता है, क्या वह निपुण व्यवसायी या कुशल कार्यकर्ता हो सकता है, क्या वह श्री, सिद्धि और सफलता से सम्पन्न हो सकता है ? कभी नहीं । यदि ऐसा सम्भव होता तो एक ही व्यक्ति न जाने कितने कार्यों का गुरु बन जाता । किन्तु ऐसा कभी होता नहीं । कोई-कोई व्यक्ति किसी एक ही कार्य में पूरे दक्ष होते हैं, बाकी कुछ न कुछ कार्य तो सभी करते रहते हैं, पर उनमें वे परिपक्व नहीं हो पाते ।। यही कारण है कि प्राचीनकाल में वर्णव्यवस्था के द्वारा प्रत्येक व्यक्ति का धंधा नियत कर दिया था। इस कारण कोई भी व्यक्ति अपने पैतृक धंधे में बहुत निष्णात हो जाता था और सामाजिक अव्यवस्था नहीं हो पाती थी। __ आज चित्त की अस्थिरता के कारण हर कोई चाहे जो धंधा ले बैठता है और उसमें सफल न होने पर वह दूसरा, तीसरा धंधा अपनाता रहता है । यही श्रीहीनता और असफलता का कारण है। 'काम काम को सिखाता है' यह उक्ति तभी चरितार्थ हो सकती है, जब कोई व्यक्ति किसी एक सत्कार्य को पकड़कर उसमें पूरे मनोयोग से चित्त की एकनिष्ठा से जुट जाता है। ऐसी स्थिति में वह कार्य कितना ही कठिन हो, उसमें कुशलता, सफलता और श्रीसम्पन्नता मिलती ही है। अपनी एकनिष्ठा के आधार पर कितने ही अनपढ़ एवं साधारण मिस्त्री तकनीकी क्षेत्र में बहुत ऊँचे पदों पर पहुँचते देखे गये हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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