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संभिन्नचित्त होता श्री से वंचित : २ १४३ पूरा-पूरा ध्यान रखकर ही सारी मशीनरी को वह अपने नियन्त्रण में रख पाता है। अगर इन्जीनियर अपना चित्त व्यग्र करके ध्यान इधर-उधर बाँट दे तो प्रतिदिन कारखाने में विस्फोट हो जाए।
इसीलिए प्रत्येक कार्य की सफलता के लिए उसमें एकाग्रता और संलग्नता बहुत जरूरी है । तीरन्दाज तीर चलाने के पूर्व अपना सारा ध्यान सांस रोककर अपने लक्ष्य की ओर लगा देता है । लक्ष्य पर ठीक तरह से निशाना साधे बिना कोई सफलता नहीं मिलती।
द्रोणाचार्य ने कौरवों और पांडवों को धनुविद्या सिखलाई थी। एक दिन वे अपने शिष्यों की परीक्षा लेने लगे। उन्होंने एक कड़ाह में तेल भरवाया, और उसमें एक खम्भा गाड़कर उसके सिरे पर चन्दे वाला मोर का पंख लगवा दिया। फिर उन्होंने अपने सब शिष्यों को एकत्रित करके घोषणा की—जो विद्यार्थी तेल से भरे कड़ाह में प्रतिबिम्बित होने वाले मोरपंख के चन्दे को बाण से बींध देगा, वही मेरा पक्का और उत्तीर्ण शिष्य कहलाएगा । अभिमानी दुर्योधन सर्वप्रथम चन्दा भेदने के लिए आगे आया। उसने धनुष पर बाण चढ़ाया। इसी समय द्रोणाचार्य ने उससे पूछा-"तुम्हें कड़ाह में क्या दिखाई दे रहा है ?" वह बोला- "गुरुजी ! मैं सब कुछ देख रहा हूँ। कड़ाह, तेल, खम्भा, मोरपंख का चन्दा, मैं, आप एवं मेरी हँसी उड़ाने वाले सब मुझे दिखाई दे रहे हैं ?"
दुर्योधन का उत्तर सुनकर आचार्य ने कहा- "चल, रहने दे ! तू परीक्षा में सफल नहीं होगा। अपने विकार को दूर कर।" मगर अभिमानी दुर्योधन न माना और उसने गर्व के साथ तेल भरे कड़ाह में देखकर मोरपंख के चन्दे के बाण मारा । किन्तु निशाना ठीक नहीं बैठा। इसके बाद एक-एक करके सभी कौरवों ने बाण मारा, लेकिन कोई भी लक्ष्यवेध न कर सका। अन्त में जब पाण्डवों की बारी आई तो युधिष्ठिर ने कहा- "गुरुजी ! हमारी ओर से केवल अर्जुन ही परीक्षा देगा। अगर अर्जुन परीक्षा में उत्तीर्ण हुआ तो हम सभी उत्तीर्ण हैं, अन्यथा अनुत्तीर्ण।"
आचार्य पाण्डवों की बात सुनकर बहुत खुश हुए उन्होंने अर्जुन को कड़ाह के पास बुलाकर कहा- "वत्स ! मेरी शिक्षा की इज्जत तेरे हाथ में है।"
अर्जुन ने तेल के कड़ाह में मोरपंख का चन्दा देखते हुए बाण का निशाना साधा । द्रोणाचार्य ने पूछा- "तुम्हें कड़ाह में क्या दिखाई दे रहा है ?"
अर्जुन बोला- "मुझे सिर्फ मोरपंख का चन्दा और अपने बाण की नोक ही दिखाई देती है, इसके सिवाय और कुछ नहीं।"
"अच्छा अर्जुन ! बाण चलाओ।" आचार्य ने कहा।
गुरु-आज्ञा पाकर अर्जुन ने बाण चलाया, जो ठीक लक्ष्य पर लगा और मोरपंख का चन्दा भिद गया। चन्दावेध देने से पाण्डवों को तो प्रसन्नता हुई ही, द्रोणाचार्य भी अतीव प्रसन्न हुए।
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