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________________ १२८ आनन्द प्रवचन : भाग ६ जगह-जगह घूमने लगा । गया, लेकिन न तो वह पाया और नेता भी न काफी उम्र बीत गई । वह युवक अब प्रौढ़ क्या, बूढ़ा हो धनिक बन सका, न विद्वान् और न ही वह संगीतज्ञ बन बन पाया । तब उसे अपनी असफलता पर बड़ा दुःख हुआ । एक दिन उसे एक महात्मा मिल गए । महात्मा से उसने अपनी सारी व्यथाकथा कह सुनाई । महात्मा ने मुस्करा कर कहा - "बेटा ! दुनिया बड़ी चिकनी है, जहाँ जाओगे, वहाँ कोई न कोई आकर्षण देखकर तुम फिसल जाओगे । इसलिए इस प्रकार के भग्नचित्त को लेकर मत घूमो, दत्तचित्त होकर एक कार्य का निश्चय करके उसमें लग जाओ । तुम सब कुछ पा सकोगे । सफलतारूपी लक्ष्मी तुम्हारे चरणों में लौटेगी । बार-बार रुचि बदलने और नई-नई रंगीन कल्पनाओं में विचरण करने से तुम्हें उन्नति एवं समृद्धि नहीं प्राप्त होगी ।" महात्मा का मार्गदर्शन पाकर युवक एक उद्देश्य निश्चित करके एक ही कार्ष में संलग्न होकर अभ्यास करने लगा । यह है भग्नचित्त का ज्वलन्त उदाहरण, जो बार - बार कल्पनाओं या रुचियों के बदलने का सूचक है । एक पाश्चात्य लेखक हेरी ए० ओवरस्ट्रीट (Harry A. Overstreet) इस सम्बन्ध में यथार्थ कहता है— "The immature mind hops from one thing to another; the mature mind seeks to follow through." “अपरिपक्व चित्त एक चीज से दूसरी चीज पर फुदकता - उछलता रहता हैं, जबकि परिपक्व चित्त एक ही उद्देश्य का अनुसरण ढूंढता है ।" प्रतिदिन कोई न कोई मन्तव्य बनाते रहने और दूसरे दिन उसे बदलते रहने से किसी भी काम में सफलता और विजयश्री नहीं मिलती, न कोई समस्या हल होती है । ऐसा करने से वह संभिन्नचित्त व्यक्ति हर प्रयत्न में विचलित और असफल होता है । कहावत है— आधी छोड़ सारी को धावे, आधी रहे न सारी पावे । तात्पर्य यह है कि अनेक कल्पनाएँ करने की अपेक्षा किसी एक विचार या कार्य में दृढ़तापूर्वक चित्त को स्थिर करना अधिक लाभदायक होता है । विजयश्री या सफलता के दर्शन भी उसी में होते हैं । चाहे उसमें प्रारम्भ में थोड़ा ही लाभ हो, पर दृढ़ता के साथ उस पर टिके रहने से अन्त में सफलता मिलती ही है । इसके विपरीत जो लोग किसी व्यक्ति की किसी कार्य में बहुत बड़ी सफलता देखकर या किसी महत्त्वा कांक्षा से प्रेरित होकर उस कार्य में बिना सोचे-समझे कूद पड़ते हैं, किन्तु चित्त की भग्नता के कारण वे कुछ ही दिनों में असफल हो जाते हैं, तब उनका विश्वास टूट जाता है, आशाओं के किले ढह जाते हैं, हृदय की सारी उमंगें भग्न हो जाती हैं । ऐसे लोग भी भग्नचित्त होते हैं । वे अपनी मनोवृत्ति पल-पल पर बदलते रहते हैं और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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