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________________ १२० आनन्द प्रवचन : भाग ६ आध्यात्मिक श्री के अभाव में त्यागीजीवन विडम्बना से परिपूर्ण होता है। आध्यात्मिक श्रीहीन साधक सदैव मानसिक संताप, पश्चात्ताप, दुःख-दैन्य एवं व्यथा से घुटता रहता है । जिसका उसके शरीर और स्वभाव पर भी असर पड़ता है । उसका शरीर चिन्ताग्रस्त, रुग्ण, दुर्बल और अस्वस्थ हो जाता है। उसकी प्रकृति में चिड़चिड़ापन, क्रोध, उग्रता, ईर्ष्या, शंका, भीति और बहम प्रविष्ट हो जाता है। उसके स्वभाव में आध्यात्मिक जीवन के प्रति अश्रद्धा, घृणा और उपेक्षा पैदा हो जाती है। उसका चित्त भ्रान्त और चंचल हो उठता है, उसका दिमाग प्रत्येक बात में शंकाशील हो जाता है, उसकी बुद्धि सन्देहग्रस्त, अनिश्चयात्मक एवं निष्क्रिय हो जाती है। आध्यात्मिक जगत् का श्रीहीन मानव व्यावहारिक जगत् के श्रीहीन मानव की अपेक्षा अधिक बदतर स्थिति में होता है। व्यावहारिक जगत् का श्रीहीन मानव तो धन के अभाव में कदाचित् किसी से मांगकर, उधार लेकर या कर्ज लेकर भी काम चला सकता है, किन्तु आध्यात्मिक जगत् का श्रीहीन मानव आध्यात्मिकता, आत्मशक्ति, मनोबल या अध्यात्म गुण न तो किसी से मांग सकता है, न किसी से कर्ज या उधार ही ले सकता है। आध्यात्मिक श्री के बिना मानवजीवन नीरस, शुष्क और किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है। आध्यात्मिक श्री से वंचित मनुष्य की आँखों के आगे सदा अन्धेरा छाया रहता है, वह विवेक के प्रकाश से रहित हो जाता है, उसके हृदय में बोध का दीपक बुझ जाता है। __ अगर आपके ज्ञानचक्षु पर आवरण है, आपके मन में वासनाएँ और कामनाएँ हैं । आपकी इन्द्रियाँ चंचल हैं, तो निश्चय समझिए आप आध्यात्मिक श्री से हीन हैं, दरिद्र हैं, आपका शक्तिस्रोत सूखा हुआ है। आपकी आत्मा में अनन्तशक्ति, अनन्तज्ञान-दर्शन और अनन्तसुख है। आपके पास वे वस्तुएँ हैं, जिन्हें पाने के लिए अन्यत्र नहीं भटकना है। जो अपने आपको पहचान लेता है, उसे बाहर का वैभव मिले, चाहे न मिले, वह बाहर से अकिंचन होकर भी समृद्ध है, श्रीसम्पन्न है। ___ मनुष्य अपने भीतर के खजाने को नहीं पहचानने के कारण दरिद्र है । आत्मविश्वास की यह दुर्बलता ही दरिद्रता है। आवरणों को दूर हटाकर वासनाओं और कामनाओं से मुक्त बनो, इन्द्रियों और मन पर अपना नियन्त्रण करो, फिर देखो कि तुम कितने समृद्ध हो ? आप यह भी मत समझिए कि आध्यात्मिक श्री की आवश्यकता केवल ऋषिमुनियों को ही है, गृहस्थवर्ग को नहीं। इसकी जितनी आवश्यकता त्यागीवर्ग को है, उतनी ही, बल्कि कभी-कभी उससे भी अधिक आवश्यकता गृहस्थवर्ग को रहती है। यदि गृहस्थवर्ग केवल भौतिक श्री की उपासना करता है, रात-दिन धन और भौतिक पदार्थों को बटोरने में लगा रहता है तो उससे उसकी सुख-शान्ति चौपट हो जाएगी, उसे भौतिक सम्पत्ति के उपार्जन, उसके व्यय और उसकी सुरक्षा की सतत Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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