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________________ भिन्नचित्त होता श्री से वंचित : १ ११६ उपस्थित हुए थे, लेकिन कणाद ने उसमें से एक कण भी स्वीकार नहीं किया । वे स्वेच्छा से स्वीकृत गरीबी, (जिसे अपरिग्रहवृत्ति कहना चाहिए ) में ही मस्त रहे । यह भौतिक दरिद्रता उनके लिए वरदान रूप थी। क्योंकि वे आध्यात्मिक श्री से पूरी तरह सम्पन्न थे, आध्यात्मिक दरिद्रता उनके पास बिलकुल नहीं फटकती थी । क्योंकि उनके हृदय में कोई निराशा, भविष्य की चिन्ता, धनसंग्रह की लालसा तथा अन्य भौतिक सुखों की कामना नहीं थी । आध्यात्मिक दरिद्रता तो वहीं निवास करती है, जिसके चित्त में अपनी शक्तियों के प्रति अविश्वास हो, आत्महीनता की भावना हो, जिसका जीवन चाहों और शिकायतों से भरा हो। जिसका जीवन शंका, कुण्ठा, बहम और अनिश्चय के दलदल में फँसा हो, जिसकी तृष्णा, विशाल हो, जिसके जीवन में पद-पद पर असन्तोष हो, अपने संघ, संस्था, परिवार या समाज में हरएक के प्रति घृणा, ईर्ष्या, द्वेष, रोष या विरोध हो । दूसरों को नीचा दिखाकर या दूसरों की प्रवृत्तियों की निन्दा करके स्वयं की प्रतिष्ठा या अपने माने हुए समाज या संघ की प्रतिष्ठा बढ़ा की मनोवृत्ति हो, जिसमें दूसरों के प्रति उदारता न हो। बाहर से समता का ढिंढोरा पीटा जाता हो, मगर अपने व्यवहार में समता का अभाव हो । सिद्धान्तों की दुहाई दी जाती हो, लेकिन व्यावहारिक धरातल पर उनका बिन्दु भी न हो, केवल सिद्धान्तों के नाम पर क्रियाकाण्डों का जाल हो । पाश्चात्य विचारक डेनियल ( Daniel) ने ठीक ही कहा है "He is not poor, that has little, but he that desires much.” " दरिद्र वह नहीं है, जिसके पास बहुत कम है, किन्तु वह है, जो बहुत चाहता है ।" फिर वह चाहना पैसे की हो, ऐसा नहीं, प्रतिष्ठा, कीर्ति, शिष्य, अनुयायी, विचरण क्षेत्र आदि की वृद्धि की लालसा भी आध्यात्मिक दरिद्रता है । व्यावहारिक और आध्यात्मिक दोनों जगत् में श्री की आवश्यकता वास्तव में लोक व्यवहार में जैसे लक्ष्मी का महत्त्व है, वैसे लोकोत्तर व्यवहार में भी उसका महत्त्व है । लोकोत्तर व्यवहार में आध्यात्मिक लक्ष्मी का महत्त्व है । व्यक्ति के पास आत्मबल नहीं है, अगर आध्यात्मिक जगत् में विचरण करने वाले मानसिक शक्ति नहीं है, इन्द्रियों के वशीकरण की क्षमता नहीं है, तपस्या का पौरुष नहीं है, कष्ट सहिष्णुता, क्षमा, दया, सन्तोष, मैत्री, करुणा आदि गुणों का अस्तित्व नहीं है तो उस श्रीहीनता की स्थिति में वह दरिद्र है, उसके जीवन में सुखशान्ति और समाधि का अभाव रहता है । वह जहाँ भी जाता है, हीनभावना की ग्रन्थि से पीड़ित रहता है, जिस किसी क्षेत्र में वह कार्य करता है, वहाँ उसे निराशा, चिन्ता, घुटन, कुण्ठा एवं अपमान का वातावरण मिलता है । उसके शिष्य और अनुयायीगण भी उसकी उपेक्षा कर देते हैं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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