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________________ आनन्द प्रवचन : भाग ६ अरी, धन में अंधी बनी हुई मुग्धे ! आफत में पड़े हुए को देखकर क्यों हँस रही है ? इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि लक्ष्मी स्थिर नहीं रहती । हे सखि ! आपने देखा होगा कि रेंहट यंत्र में लगा घड़ा भरा हुआ खाली हो जाता है और खाली भर जाता है ! १०८ इस प्रकार सारे नगर में अपमानित दशा में घूमते हुए मुँज राजा की अपकीर्ति जन-जन के मुख से. मुखरित हो रही थी । राजा ने इस प्रकार अपमानित करके उसे मरवा डाला । सच है, कुशील पुरुष को कीर्ति नष्ट होते देर नहीं लगती । यों तो कुशील शब्द में हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन और परिग्रह आदि सभी अनिष्ट कदाचार आ जाते हैं । इन सब कदाचारों से मानव की कीर्ति समाप्त हो जाती है और अपकीर्ति ही बढ़ती है । बौद्धधर्म के मूर्धन्य ग्रन्थ दीर्घनिकाय ( ३ | ८ | ५ ) में यशकीर्ति कौन-कौन व्यक्ति अर्जित कर सकता है, इस सम्बन्ध में सुन्दर प्रेरणा दी है उट्ठानको अनलसो आपदासु न वेधति । लभते यस ॥ अच्छिदवत्ति मेधावी तादिसो पंडितो सीलसंपन्नो सहो च निवातवृत्ति अत्थद्धो तादिसो लभते यसं ॥ पटिभानवा | उद्यमी (पुरुषार्थी), निरालंस, आपत्ति में न डिगने वाला, निरन्तर दान परोपकारादि सत्कार्य करने वाला, एवं मेधावी पुरुष यशकीर्ति पाता है । इसी प्रकार पंडित, सदाचारसम्पन्न, धर्मस्नेही, प्रतिभावान, एकान्तसेवी ( राजनीति तथा लोगों के झगड़ोंप्रपंचों में न पड़ने वाला) अथवा आत्मसंयमी एवं विनम्र पुरुष यशकीर्ति पाता है । यह बात सोलहों आने सच है कि यशकीर्ति प्राप्त करने के लिए सौम्य, नम्र एवं शीलसम्पन्न ( चरित्रवान् ) होना अत्यन्त आवश्यक है । गौतम ऋषि ने अकीर्ति के लिए जिन दो दुर्गुणों की ओर इंगित किया है, कीर्ति के लिए उनसे विपरीत दो मुख्य सद्गुणों का व्यक्ति के जीवन में होना आवश्यक है । प्रसिद्ध साहित्यकार शेक्सपियर (Shakespeare) के शब्दों में कहूँ तो "See that your character is right and in the long run your reputation will be right." "देखो कि तुम्हारा चरित्र ठीक है तो अन्त में तुम्हारी प्रतिष्ठा (कीर्ति) भी ठीक हो जाएगी ।" धन के अभाव में मनुष्य ऊँचा उठ सकता है, विद्या के बिना भी वह प्रगति कर सकता है, दान और परोपकार के लिए भौतिक साधनों के अभाव में भी मनुष्य आगे बढ़ सकता है, किन्तु चरित्र, सुशीलता या सदाचार के नैतिक-आध्यात्मिक विकास नहीं कर सकता और न ही अपनी सकता है । अभाव में वह कदापि कीर्ति को सुरक्षित रख Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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