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________________ आनन्द प्रवचन : भाग ६ "Fame is the perfume of heroic deeds” 'कीर्ति, दान, दया आदि साहसिक कार्यों की सुगन्धि है।' सत्कार्य के फलस्वरूप सारे वातावरण में एक महक फैल जाती है । वह महक सुवास, सुगन्ध या सौरभ लोगों को अपनी ओर आकर्षित करती है। यद्यपि सुगन्ध आँखों से दिखाई नहीं देती, परन्तु नाक से सूंघी जा सकती है। इसी प्रकार सत्कार्य के फलस्वरूप मिलने वाली सद्भावनाएँ, शुभेच्छाएँ, या शुभाशीषं दिखाई नहीं देतीं, पर अनुभव तो की जाती है। इन्हीं आशीर्वाद आदि के रूप में कीर्ति से सुख का अनुभव होता ही है । इसके कारण जनता में सत्कार्य के प्रति अनुराग पैदा होता है। लोगों का यह सत्कृति के प्रति अनुराग ही एक प्रकार से कीति है। मैं एक छोटे से दृष्टान्त द्वारा इसे समझा दूं बम्बई में एक बहुत बड़ी चाली (बाड़ी) में एक सज्जन सद्गृहस्थ परिवार रहता था। उस परिवार के विचार, व्यवहार, वाणी और आचरण से चाली के सभी लोग प्रसन्न और प्रभावित थे । एक दिन परिवार के मुखिया को नौकरी के तबादले का आर्डर आ जाने से सपरिवार उस चाली को छोड़कर अन्यत्र जाना पड़ा। उसके जाने के बाद चाली के लोग कहने लगे—'वाह ! कितना अच्छा परिवार था। इसके कारण हमारी सारी चाली सुवासित थी । इस परिवार के चले जाने से इस चाली की रौनक चली गई । सारी चाली मानो खाली-खाली-सी लगती है। यह परिवार जहाँ भी जाए, उसका भला हो।" इस प्रकार उस सद्गृहस्थ परिवार के प्रति स्थानीय जनता की आन्तरिक सद्भावनाएँ ही कीति है । एक पाश्चात्य लेखक स्टेनिसलाउस (Stanislaus) इसी बात का समर्थन करता है "What is fame ? The advantage of being known by people of whom you yourself know nothing, and for whom you care as Jittle." “कीति क्या है ? जनता द्वारा जाना हुआ लाभ, जिसे तुम स्वयं बिलकुल नहीं जानते और न ही उसकी जरा भी परवाह करते हो।" आज संसार में महापुरुषों के नाम चलते हैं, जनता की जबान पर उनके नाम चढ़े हुए हैं, उनके सद्गुणों तथा उनके द्वारा किये गए सत्कार्यों से भी बहुत-से लोग परिचित होते हैं। जगह-जगह उनकी जयंतियाँ मनाई जाती हैं, उनके व्यक्तित्व और कृतित्व का बखान किया जाता है, क्योंकि उनके सत्कार्यों एवं जीवन से समाज का अत्यन्त लाभ हुआ है । उनके उपदेशों और कार्यों से तथा आचरणों और व्यवहारों से मानवजीवन प्रभावित हुआ है, इस कारण समाज के हृदय में उनका सतत कीर्तन चलता रहता है। इस प्रकार उन सज्जनों की कीर्ति अपना काम करती रहती है। जब उन्होंने कार्य किया था, तब उसका जो लाभ या फल समाज को मिलना था, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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