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________________ क्रुद्ध कुशील पाता है अकोति ८६ प्रशंसा हो' वह कीति है, इसके विपरीत उसके अवगुणों, गलत कार्यों की लोग निन्दा करें, बदनामी करें, उसे धिक्कारें या अपमानित करें, वह अकीति है। सामान्यतया कीर्ति एक दिशागामिनी होती है, जो दान, पुण्य आदि कार्यों के करने से होती है, जबकि यश सर्वदिशागामी होता है, जो शत्रु पर विजय पाने हेतु संग्राम में पराक्रम करने से फैलता है। कीति से उलटी अकीति है। इसलिए अगर आप पहले कीति को ठीक से समझ लेंगे तो अकीर्ति भी आपकी समझ में आ जाएगी। भगवद्गीता में कीति को नारी की सात शक्तियों में सर्वप्रथम शक्ति बताई गई है। इस जगत् में आकर मनुष्य जो दान, सेवा, परोपकार, रक्षा, दया, करुणा, सहानुभूति, मानवता आदि के पुण्यकार्य, सत्कार्य या शुभकार्य करता है, उसके फलस्वरूप दुनिया में जो सद्भावना पैदा होती है, लोगों की जो शुभेच्छाएँ, मंगलकामनाएँ या शुभाशीर्षे मिलती हैं, अथवा जनता के मुख से वाहवाह, धन्य-धन्य, आदि प्रशंसासूचक उद्गार निकलते हैं, संसार में उसके शुभकार्यों के फलस्वरूप जो नामना, ख्याति या प्रसिद्धि होती है, समाज में उसकी प्रतिष्ठा, सम्मान या इज्जत बढ़ती है, उसे कीर्ति कहते हैं । कीर्तन शब्द भी उसी में से निकला है । कृति अच्छी हो, कार्य सुन्दर, सर्वहितकर, जनलाभकर एवं सहायकारक हो, वहीं सार्वजनिक सद्भावना या शुभेच्छा पैदा होती है । इसलिए यह निःसंदेह कहा जा सकता है कि सुकृति-सत्कार्य-सुकृत ही कीर्ति का मूल है । पाश्चात्य विद्वान् कार्लाइल (Carlyle) के शब्दों में कहूँ तो "Fame is the sure test of merit.” 'निःसंदेह, कीति उत्तमगुण की परीक्षा है।' वास्तव में, मानवजीवन में निहित शील, चारित्र, ज्ञान आदि गुणों को परखने का थर्मामीटर यदि कोई है तो कीर्ति है । कीर्ति के द्वारा मानव के उत्तम कार्यों का नापतौल हो जाता है । पाश्चात्य दार्शनिक सोक्रेटीज (Socrates) ने कीर्ति की बहुत सुन्दर व्याख्या की है १ दान-पुण्यकृता कीर्तिः पराक्रमकृतं यशः । एक दिग्गामिनी कीर्तिः, सर्वदिग्गमकं यशः । -कर्मग्रन्थ, भाग १ कीर्तनं कीर्तिः । अहो पुण्य भागित्येव लक्षणे । -आवश्यक सर्व दिग्व्यापिनि साधुवाद । -स्था० कीर्तने, संशब्दने, श्लाघने । -भगवती गुणोत्कीर्तनरूपायां प्रशंसायां दानपुण्यकृतायां एक दिग्गामिन्याम् । -पंचा० पुण्यगुणख्यापनकारणं यशःकीर्तिनाम, तत्प्रत्यनीकफलमयशःकीर्तिनाम ।--सर्वार्थ० जस्स कम्मस्स उदएण संताणमसंताणं वा गुणाणमुब्भावणं लोगेहि कीरदि तस्स कम्मस्स जसकित्तिसण्णा । जस्स कम्मस्सोदएण संताणमसंताणं वा अवगुणाणं उब्भावणं जणेण कीरदे, तस्स कम्मस्स अजस कित्तिसण्णा। -धवला ६१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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