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________________ आनन्द प्रवचन : भाग ६ विनीत को स्थिरबुद्धि प्राप्त होती है, अविनीत को नहीं अभिमानयुक्त बुद्धि के साथ मनुष्य में आत्मनिरीक्षण, स्वदोषदर्शन की शक्ति और आत्मशुद्धि की क्षमताएँ नष्ट होने लगती हैं, जिससे वह अपना बुनियादी सुधार नहीं कर सकता । अभिमानी व्यक्ति की जब भी कोई निन्दा कर देता है, उसे जरा-सा भी चुभता वचन कह देता है या उसका वास्तविक दोष या अपराध भी कोई व्यक्ति उसके समक्ष प्रगट कर देता है तो वह उससे द्वेष, रोष, वैर-विरोध करने लगता है, उस समय उसकी बुद्धि ठिकाने नहीं रहती और आवेश में पागल होकर वह हितैषी व्यक्ति से भी शत्रुता ठानकर बदला लेने को तैयार हो जाता है । अभिमानी व्यक्ति दूसरों की उन्नति, प्रशंसा और प्रतिष्ठा होती देखकर जलभुन जाता है, वह उन्हें नीचा दिखाने और गिराने की फिराक में रहता है । उसकी बुद्धि हरदम अकारण शत्रु बनकर ऐसे लोगों के विरुद्ध षड्यन्त्र रचती रहती है । अभिमानी व्यक्ति किस प्रकार सात्त्विक और नवस्फुरणात्मक स्थिरबुद्धि प्राप्त नहीं कर पाता और निरभिमानी, विनीत एवं नम्र व्यक्ति किस प्रकार सात्त्विक एवं स्थिरबुद्धि प्राप्त कर लेता है ? इसे भली भाँति समझने के लिए दो ब्राह्मण छात्रों का उदाहरण लीजिए ८२ किसी नगर में एक उपाध्याय (गुरु) के पास दो शिष्य विद्याध्ययन करते थे । गुरु का दोनों छात्रों पर एक-सा ही स्नेह और सौहार्द था । किन्तु उन दोनों में एक छात्र विनीत, गुणग्राही, नम्र, आज्ञाकारी और सेवापरायण था; जबकि दूसरा छात्र उद्दण्ड, कदाग्रही, अभिमानी, दोषदर्शी एवं उच्छृंखल था । परन्तु गुरु उसकी उद्धतता को नजरअन्दाज कर देते थे । वे बिना किसी प्रकार के पक्षपात एवं भेदभाव के दोनों को समान भाव से विद्यादान देते थे । इनके अध्ययन के दो विषय थे— ज्योतिष और आयुर्वेद ! धुरन्धर विद्वान् उपाध्याय ने काफी लम्बे अर्से तक दोनों को पढ़ाया। दोनों छात्र इन विषयों में पारंगत हुए । उपाध्यायजी दोनों छान्नों से यदाकदा दोनों विषयों का प्रयोग भी करवाते थे ताकि दोनों का अध्ययन ठोस हो जाय । एक बार कुछ दूरस्थ कस्बे से कुछ बीमारों को देखने का गुरुजी को आमंत्रण मिला । लेकिन अत्यन्त वृद्धावस्था के कारण उन्होंने स्वयं न जाकर इन दोनों शिष्यों को सारी बातें समझाकर वहाँ भेज दिया । रास्ते में बड़े-बड़े पैरों के चिन्ह देखकर विनीत छात्र ने पूछा - " कहो भैया ! ये पदचिन्ह किसके हैं ?" अविनीत छात्र तपाक से बोला - “ इसमें क्या पूछने की जरूरत है ? ये पैर तो साफ हाथी के हैं ।" विनीत छात्र बोला - "नहीं, ऐसा नहीं है । ये हथिनी के पैर हैं । हथिनी एक आँख से कानी है । उस पर कोई राजा की रानी सवार होकर इधर से गई है । रानी पूर्णमासा गर्भवती है और उसके शीघ्र ही पुत्र होने वाला है । इतना रहस्य मैं समझ पाया हूँ ।" अविनीत बोला- "बस बस रहने दे, ज्यादा बकवास मत कर । ऐसी मनगढ़ंत बातों को कौन मानता है । हाथ कंगन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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