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________________ ६४ आनन्द प्रवचन : भाग ८ बार लिखा गया था । बुद्धिमान वृद्ध महामन्त्री ने काँपती हुई आवाज में सम्राट् से कहा' मेरे परिवार के सौहार्द का रहस्य इसी एक ही शब्द में निहित है । मेरी सुखी गृहस्थी का मूलमन्त्र भी यही है । यही महामन्त्र हमारे बीच एकता का धागा पिरोए हुए है । इस महामन्त्र को जितनी बार दोहराया जाय, उतना ही कम है ।" कहना होगा कि जापान का सम्राट् एक नई प्रेरणा लेकर खुशी से लौटा । इसीलिए उत्तराध्ययन सूत्र के माध्यम से भगवान महावीर ने अपनी देशना में कहा खति विज्ज पंडिए " पण्डित ( विवेकशाली) साधक क्षान्ति का सेवन करे ।" वास्तव में मानवजीवन के सभी क्षेत्रों में सहिष्णुता अत्यन्त आवश्यक है । इसके बिना परिवार, समाज और राष्ट्र आदि का जीवन कभी सुखी, प्रभुभक्त और उदार कदापि नहीं बन सकता । संसार में अनेक प्रकार विभिन्न स्वभाव, रुचि, प्रकृति, संस्कार आदि के मनुष्य हैं । कई व्यक्तियों के गुण, धर्म भी एक दूसरे के विरोधी होते हैं । फलतः मूढ़ लोग बहुधा परस्पर टकराते रहते हैं, एक-दूसरे को भला-बुरा कहते रहते हैं और इसी असहिष्णुता के कारण वे अपने परिवार, समाज, जाति या राष्ट्र को नरक बना डालते हैं । आचार-विचारों के जरा-जरा-से भेद को लेकर वे आपस में सिर फुटौव्वल मचाते और नाक-भौं सिकोड़ते रहते हैं । यह द्वेषभाव फिर पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता रहता है । इस स्थिति को टालने का सबसे अच्छा उपाय है— सहिष्णुता । गोस्वामी तुलसीदासजी ने भी सुन्दर बात कही है 'तुलसी' इस संसार में भांत भांत के लोग । सबसे हिल मिल चाहिए, नदी नाव-संयोग ॥ महाभारत ( वनपर्व २९ / ३७) में क्षान्ति की महिमा बताते हुए कहा है “क्षमा ब्रह्म, क्षमा सत्यं क्षमा भूतं च भावि च । क्षमा तपः क्षमा शौचं क्षमयेदं धृतं जगत् ॥ " '' क्षान्ति ही ब्रह्म ( भगवान् का निवास) है, क्षमा ही सत्य है, क्षमा ही भूत और भविष्य हैं, क्षमा ही तप है, क्षमा ही पवित्रता है। अधिक क्या कहें, क्षान्ति (क्षमा) ने यह सारा संसार धारण किया (टिकाया ) हुआ है । असहिष्णुता से कितनी हानि, कितना लाभ सबसे खेद और परिताप की बात यह है कि जो धर्म प्रेम, सहिष्णुता, दया, अहिंसा, मंत्री, क्षमा, करुणा, एवं बन्धुता का पाठ पढ़ाने आए थे, उन्हीं धर्मों को लेकर लोग आपस में विरोध, निन्दा, एवं घोर असहिष्णुता का वातावरण बना देते हैं । धर्म, जो शान्ति प्रदान करने के लिए स्थापित किये गए थे, आज अशान्ति के केन्द्र बने हुए हैं । पानी में ही आज आग लगी हुई है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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