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________________ ४६ आनन्द प्रवचन : भाग ८ काम प्रवृत्ति स्वाभाविक है या अस्वाभाविक ? बहुत से लोग, पश्चिम के सेक्स साइकोलॉजी ( भौतिकवादी यौन मनोविज्ञान ) के विद्वानों के मतानुसार यह कहते हैं कि काम प्रवृत्ति भूख आदि की हाजतों की तरह स्वाभाविक हाजत है । उसके प्रकाशन और तृप्ति की प्रक्रिया में कोई रोक नहीं लगाई जानी चाहिए । परन्तु भारतीय दर्शन, धर्म एवं मनोविज्ञान इस बात से पूरी तरह सहमत नहीं हैं । भारतीय दर्शन एवं धर्म गृहस्थ जीवन में व्यक्ति को नैतिक रीति से काम सेवन पर यानी धर्म से अविरुद्ध काम सेवन पर रोक नहीं लगाते, परन्तु जहाँ अनैतिक ढंग से या उच्छृंखलरूप से कामचिन्तन या कामसेवन का प्रश्न है, वहाँ भारतीय दर्शन या धर्म एक स्वर से उसका विरोध करते हैं; क्योंकि नैतिक मर्यादाओं को ताक में रखकर पशु की तरह उच्छृंखल काम सेवन या कामचिन्तन से शरीर और मन दोनों का भयंकर नुकसान होता ही है, साथ ही परिवार और समाज के परम्परागत सुसंस्कारों एवं नैतिक नियमों पर जबर्दस्त असर पड़ता है । समाज परिवार, जाति, एवं राष्ट्र में कामुक व्यक्ति के प्रति अविश्वास, सन्देह, घृणा और अनादर पैदा हो जाता है । काम भोग से होने वाली इहलौकिक और पारलौकिक हानियों का उल्लेख करते हुए जैनशास्त्र कहते हैं - " सल्लं कामा विसं कामा, कामा आसीविसोवमा । कामेय पत्थमाणा अकामा जंति दुग्गइं ॥" काम शूल की तरह चुभने वाली वस्तु है, काम विष की तरह मारने वाली वस्तु है, काम आसीविष सर्प की तरह क्षणभर में भस्म करने वाली उग्र वस्तु है । जो लोग काम-भोगों के सेवन की लालसा करते हैं, वे उन कामों से अतृप्त रहते हैं, और दुर्गति में जाते हैं । थेरी गाथा में भी बताया है-सत्ति सूलूपमा कामा' अर्थात् 'काम, विष - बुझे बाणों के समान तथा तीखे भालों के समान पीड़ादायक है ।' काम मनुष्य के भीतर छिपा हुआ वह भस्मकरोग है, जो उसे कदापि शान्ति और प्रसन्नता से जीने नहीं देता । यह जब मनुष्य के मन में प्रबल हो जाता है, तो उसे सत्कर्म की ओर बढ़ने नहीं देता । मनुष्य के आत्मबल को उभरने नहीं देता । उससे मनुष्य का तेज और ओज दब जाता है, समाप्त प्रायः हो जाता है । इसीलिए भगवद्गीता में कहा गया है " जहि शत्रु महाबाहो ! कामरूपं दुरासदम् ।” वीर अर्जुन ! मुश्किल से काबू में आने वाले काम रूपी शत्रु को नष्ट कर डालो ।" जो लोग डॉक्टर थे, पश्चिम के काम मनोविज्ञान - वेत्ता थे और काम प्रवृत्ति को मनुष्य की स्वाभाविक वृत्ति मानते थे, शरीर विज्ञान में भी निष्णात थे, उन्होंने अनेक लोगों पर इस मान्यता का परीक्षण किया और इस बात को पाया कि उच्छृंखल Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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