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________________ माया : भय की खान ३६७ संस्कारी मालूम होते थे । ऐसा मालूम होता था, मानों उन्हें धार्मिक जानकारी काफी हो । उनसे व्यवसाय के बारे में पूछा जाय तो, यही उत्तर देते हैं-"मेरे लड़के ग्रेज्युएट हैं, वे सब अपने-अपने धन्धे में लगे हुए हैं। मैं ब्रह्मचर्य आदि का पालन करते हुए सादगी से रहता हूँ । मामूली ब्याज- बट्टे के धन्धे से अपनी आजीविका चलाता हूँ । अधिकांश समय साधु-साध्वियों की सेवा में बिताता हूँ ।" लेकिन बाद में उस भाई के वेश, व्यवहार और आश्चर्य हुआ । वाणी की माया से हमें बड़ा एक अत्यन्त निर्धन भाई ने अपना कटु अनुभव सुनाते हुए दुःखित हृदय से कहा --- " मैंने संकट के समय इस भाई से ५००) रु० कर्ज लिए थे । धीरे-धीरे करके मैंने उसके बदले में ६०० ) भर दिये। फिर भी यह महाशय कहते हैं कि अभी तुम पर ४०० ) रुपयों का कर्ज और बाकी है । गाँव की एक विधवा बाई थी । उसकी सास गुजर गई तो ग्राम के लोगों ने उस पर मोसर (मृतभोज) करने के लिए दबाव डाला । फलतः उस बाई ने इस महाशय के पास अपना घर गिरवी रख कर रुपये लिए और अपनी सास का मोसर किया । दो तीन वर्ष मेहनत मजदूरी करके कुछ रुपये जोड़े और उन्हें लेकर इन भाई के पास पहुँची । बोली - लीजिए आपके रुपये, और मेरा मकान मुझे बापस सौंप दीजिए ।" परन्तु वह मकान बाजार के बीच में मौके का होने से इस महाशय की traforड़ी और बाई को टका सा जवाब दे दिया - "कौन सा मकान ? कब गिरवीं रखा था । मेरे यहाँ उसकी कोई लिखा-पढ़ी नहीं है ।" आखिरकार निराश बाई ने इस महाशय के लड़के के विवाह के अवसर भोजन करने आए हुए भाइयों से इस मामले में न्याय दिलाने के लिए प्रार्थना की। उन्होंने इस भाई को बुलाकर दबाव डालते हुए कहा - " पहले इस विधवा बहन को उसका मकान सौंप दो, तभी हम तुम्हारे यहाँ भोजन करेंगे ।" परन्तु इसने धृष्टतापूर्वक उत्तर दिया- आपको भोजन करना हो तो कीजिए, मैं मकान हर्गिज वापस नहीं दूंगा । मेरे यहाँ मिठाई बच जाएगी तो मैं हलवाई को बेच दूंगा । " सचमुच, ऐसे माया से प्रेरित व्यक्ति अत्यन्त खूंख्वार और घातक होते हैं । मायायुक्त जीवन : अन्दर से खोखला मायायुक्त जीवन बाहर से भभकेदार दिखता है, परन्तु अन्दर से बिलकुल निःसत्त्व, थोथा और भयंकर कुटिल होता है। ऐसे वक्र एवं गूढ़ जीवन से प्रत्येक व्यक्ति, संस्था या समाज को खतरा रहता है । ऐसे व्यक्ति को कोई भी किसी प्रकार की जिम्मेदारी खास तौर से आर्थिक जिम्मेदारी सौंपने में हिचकिचाता है, वह समाज के लिए भयंकर, अविश्वसनीय एवं निन्दनीय बन जाता है। चाहे वह कितना ही पढ़ा-लिखा क्यों न हो, चाहे वह कितना ही धार्मिक क्रियाकाण्ड करता हो उसकी कपटक्रिया से सबका मन उसके प्रति फट जाता है । कितना ही दूध हो, उसमें जरा-सी खटाई Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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