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________________ अप्रमाद : हितैषी मित्र ३८१ कर्म की दशा ऐसी ही है। अतः अब हम आर्तध्यान न करके विरक्त हैं । आप हमें अनशन करा कर हमारे जन्म-मरण की भीति निवारण कीजिए।" आचार्यश्री ने उनकी बात का समर्थन किया और राजा तथा सेठ की सम्मति लेकर अरुणदेव और देयणी दोनों को अनशन का प्रत्याख्यान कराया । तत्पश्चात् आचार्यश्री ने दोनों को कुछ प्रतिबोध दिया-"अनशन के दौरान तुम्हें समस्त पदार्थों पर जो दुःखमूल ममत्व है, उसे छोड़ देना है । परम पद का कारण, जो सर्वभूतमैत्री है, उसे अपनाना है। पूर्वकृत दुष्कृत्यों का मन से भी समर्थन नहीं करना है, साथ ही वीतराग प्ररूपित रत्नत्रयी के प्रति श्रद्धा भक्ति दिखानी है और अप्रमत्त होकर परमपद के स्वरूप का चिन्तन करना है।" दोनों ही विनम्र भाव से तदनुसार आचरण करने लग गए। राजा आदि भी इस वैराग्यमय वाणी को सुनकर अपने द्वारा हुए प्रमाद के विषय में पश्चात्ताप करने लगे । आचार्य श्री ने उन्हें भी समझाया-"राजन् ! कर्म परिणति विचित्र है । जरा-से प्रमाद से इतने दारुण दुःख ही नहीं, कभी-कभी तो जीव को नरक और तिर्यञ्च के घोर कष्ट सहने पड़ते हैं। इसलिए प्रमाद को महादुःखदायी समझो। प्रमाद एक जन्म में ही नहीं, अनेक जन्मों में भयंकर दुःख देता है। अतः यथार्थ आत्म-सुख के लिए प्रमाद का सर्वथा त्याग करिए पूर्वकृत प्रमाद से जो कर्मबन्धन हुए, उन्हें तोड़ने के लिए सर्वश्रेष्ठ उपाय यही है कि उसे समस्त आरम्भ और परिग्रह का त्याग करके महाव्रतों का स्वीकार करना चाहिए और अप्रमत्त होकर उनका पालन करना चाहिए । यही प्रमादरोग का सर्वोत्तम औषध है।" __इस पर राजा ने सविनय पूछा-"भगवन् ! इन दोनों ने इस प्रमाद सेवन के बाद अप्रमाद का सेवन किया था, फिर भी जरा-से प्रमाद का इतना दारुण फल इन्हें मिला, इसका क्या कारण ?" __आचार्यश्री ने समाधान किया--- "राजन् ! इन्होंने बाद में अप्रमाद सेवन किया था, उसी के फलस्वरूप तो इन्होंने अनेक कर्मों का क्षय कर लिया, इन्हें मनुष्य जन्म मिला, उत्तम धर्म मिला। उत्तम धर्माचरण का अवसर मिला और अब उत्कृष्ट अप्रमाद के बीज बोकर ये जन्ममरण-परम्परा को तोड़ रहे हैं । अतः पूर्वकृत दुष्कृत्यों के लिए पश्चात्तापपूर्वक आलोचना गुरु समक्ष करके विधिपूर्वक प्रायश्चित करना उचित है । अप्रमाद की सामग्री मिलने पर प्रमाद न करना ही योग्य है।" यह सुनकर राजा, जसादित्य सेठ और महेश्वर तीनों ने विरक्तिभाव से दीक्षा ले ली। कड़ों के असली चोर को भी घोर पश्चात्ताप हुआ। उसने भी गुरुदेव से अनशन ग्रहण किया । अरुणदेव, देयणी और चोर तीनों आयुष्यपूर्ण करके देवलोक में पहुँचे । निष्कर्ष यह है कि प्रमाद चाहे किसी प्रकार का हो, सर्वथा त्याज्य है और अप्रमाद ही हितैषी, मित्र के समान सदा अपनाने योग्य है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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