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________________ ३८० | आनन्द प्रवचन : भाग ८ अरुणदेव के भी "क्या तुझे शूली पर चढ़ा दिया था ?" इस प्रकार के कठोर वचन वाचिक प्रमादवश निकल गये थे, जिसके कारण बन्धे हुए कठोर कर्म उदय में आये । अरुणदेव जब जगा तो उसने अपने पास रखे हुए दो कड़े और छुरी देखकर सोचा-किसी देवता ने तुष्ट होकर मुझे दिये हैं, अतः उसने दोनों चीजें अपने पास रखलीं । वह यह सोच ही रहा था, इतने में कोतवाल आया। उसने अरुणदेव के पास कड़े और छुरी देखकर ललकारा-"अरे दुष्ट ! अब कहाँ जाएगा?" यह सुनते ही अरुणदेव के हाथ से छुरी नीचे पड़ गई। कोतवाल उसे रंगे हाथों गिरफ्तार करके राजा के पास लाया । राजा को सारी घटना सुना दी। राजा को किसी प्रकार की शंका न रही । अतः आदेश दिया- "इसे शूली पर चढ़ा दो।" राजपुरुषों ने वध्यस्थान पर लाकर उसे शूली पर चढ़ा दिया । इधर महेश्वर बाजार से भोजन लेकर आया तो अरुणदेव को देवालय में न देखकर हक्का बक्का हो गया। बहुत तलाश करने पर भी न मिला तो वहाँ के माली आदि से उसका हुलिया बताकर पूछा। उन्होंने कहा-और तो किसी को हमने नहीं देखा, अभी एक चोर को सूली पर चढ़ाया गया है, शायद उसे देखने को वहाँ गया हो।” महेश्वर क्षुब्ध होकर माली के साथ वध्य स्थान पर पहुंचा और अरुणदेव को शूली पर लटकते हुए देखा तो- अरे श्रेष्ठिपुत्र ! यों कहता हुआ बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ा । यह सुनकर कुतूहल वश लोगों ने महेश्वर को होश में लाकर पूछा"यह श्रेष्ठी पुत्र कौन है ?' तब उसने अथ से इति तक सारा वृत्तान्त सुनाया, उस पर से जसादित्य सेठ को पता लगा कि अरुणदेव तो मेरा दामाद है, इस निर्दोष को शूली पर चढ़ाया गया है, तो वह विलाप करने लगा। राजा के कानों में बात पहुँची तो उन्होंने कोतवाल को बुलाकर डांटा। उसने कहा-''इसके पास छुरी और कड़े बरामद हुए, इस पर से हमने इसे पकड़ा है। इसमें हमारा क्या दोष !" राजा ने जसादित्य सेठ को समझाया। फिर अरुणदेव को शूली से नीचे उतरवाया। इसी दौरान चार ज्ञान के धारक अमरेश्वर आचार्य वहाँ पधार गए । महेश्वर आदि सब शोकविह्वल लोग शान्त होकर उनके दर्शनार्थ पहुँचे । आचार्यश्री ने सबको धर्म देशना दी, जिसमें उन्होंने बताया कि 'देवानुप्रियो ! मोहनिद्रा छोड़कर धर्म जागरण में जीओ। भावशत्रु प्रमाद को छोड़ो। जरा-सा प्रमाद करके जीव भयंकर परिणाम-जनक कर्म बन्धन कर लेता है। देखो-अरुणदेव और देयणी को, जो जरा से पूर्वकृत वाचिक प्रमाद के कारण बन्धे हुए घोर कर्मों का शारीरिक और मानसिक फल भोग रहे हैं ।" यों कहकर आचार्यश्री ने उनके पूर्वजन्म की प्रमादा चरण की घटना आद्योपान्त सुनाई, जिसे सुनकर जनता वैराग्य रस में डूब गई। इधर अरुणदेव और देयणी ने जब अपनी करुण कथा सुनी तो मूच्छित हो गए। होश में आते ही उन्हें जातिस्मरण ज्ञान प्राप्त हुआ, जिसके प्रकाश में उन्होंने अपना पूर्वजन्म कृत प्रमादाचरित घटनाचक्र जाना । तत्पश्चात् शुभ परिणाम वश दोनों ने आचार्य श्री से कहा- "भगवन् ! आपने जैसा फरमाया, वैसा ही हमारे साथ घटित हुआ है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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