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________________ ३६४ आनन्द प्रवचन : भाग ८ आया और तीन वार प्रदक्षिणापूर्वक वन्दन करके कहने लगा- "हे मरीचि परिव्राजक ! मैं प्रभु मुख से यह सुन कर बहुत खुश हूँ कि आप जगत् की सर्वोत्तम उपलब्धियाँ प्राप्त करेंगे। आप तीर्थंकर, चक्रवर्ती और वासुदेव बनेंगे। अतः मैं आपके परिव्राजकपद को नमन नहीं करता, परन्तु भविष्य के तीर्थंकर के नाते वन्दन करता हूँ। धन्य है, आपको ! यों बारबार स्तुति करके भरत चक्री अपने स्थान पर लौटे । परन्तु मरीचि के हृदय में कुलमद रूपी शत्रु ने कब्जा जमा लिया । वह अहंकारस्फीत एवं मदविह्वल होकर त्रिपदी आस्फोटन करके नाचते हुए कहने लगा-मैं प्रथम वासुदेव, चक्रवर्ती तथा अन्तिम तीर्थंकर बनूंगा, इसलिए मेरा कुल सर्वश्रेष्ठ है तथा नौ वासुदेवों में प्रथम वासुदेव मैं बनूंगा, मेरे पिताजी १२ चक्रवर्तियों में प्रथम चक्रवर्ती हैं और मेरे पितामह भी प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव हैं ! अतः मेरे कुल से बढ़कर कोई कुल नहीं है। यों कुलमद करने से नीचगोत्र कर्म बांध लिया । फलतः अन्तिम तीर्थंकर महावीर स्वामी के भव में वह कर्म उदय में आया । २४वें तीर्थंकर का जन्म आश्चर्य रूप में हुआ। कहा भी है "जाति-लाभ-कुलश्वर्य-बल-रूप-तपः श्रुतैः । कुर्वन् मदः पुनस्तानि होनानि लभते जनः ॥" जातिमद, लाभमद, कुलमद, ऐश्वर्यमद, बलमद, रूपमद, तपोमद और श्रुतमद इन मुख्यतया ८ मदों के करने से मनुष्य हीन जाति कुल आदि प्राप्त करता है। बलमद के रूप में बल का घमण्ड भी वृथा है। संसार में एक से एक बढ़कर बलिष्ठ थे, और होंगे, परन्तु वे भी इस संसार से एक दिन चले जाते हैं। काल सभी बलवानों का घमण्ड चूर-चूर कर देता है। यदि किसी को अत्यधिक शारीरिक या मानसिक बल प्राप्त है तो उसकी उपयोगिता सत्य, न्याय और धर्म की रक्षा करने में हैं। अगर बलिष्ठ व्यक्ति अपने सामने किसी कुलीन अबला को सताते या दबाते देखता है तो उसका प्रतिकार करने में बल की सार्थकता है। किसी पर अत्याचार अन्याय करने और सताने में बल का उपयोग करना व्यर्थ है। बल की सीमाएँ अनन्त हैं। अनन्त बली तीर्थंकरों की तुलना में आपका बल एक बिन्दु के बराबर है, फिर अभिमान किसका ? अतः बल का अभिमान करने की अपेक्षा, बल के क्षेत्र में उन्नति करके दुर्बल प्राणियों की रक्षा में उसका उपयोग करना उचित है । श्रेणिक राजा ने अपने बल का गर्व करके एक सगर्भा हिरनी बाण से बींध डाली। बेचारी वहीं छटपटा कर मर गई । इस बलमद से श्रेणिक राजा के नरक का आयुष्य बन्ध हुआ। इसी प्रकार भगवान महावीर के जीव ने पूर्वभव में निदान किया था कि "मैं अपनी तपस्या के फलस्वरूप महाबली पराक्रमी बन ।” फलतः वे आगामी भव में त्रिपृष्ठ वासुदेव बन कर फिर नरक में गए। आज बड़े-बड़े राष्ट्रों को अपने शस्त्रास्त्र बल या धनबल का घमण्ड है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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