SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 37
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लोभी होते अर्थपरायण २३ हजारों कुआरी लड़कियाँ, सधवाएँ एवं विधवाएँ वेश्यावृत्ति अंगीकार करके अपने शरीर को बेच देती हैं, अपने धर्म को छोड़ देती हैं । भोजप्रबन्ध में स्पष्ट कहा हैमातरं पितरं पुत्रं भ्रातरं वा सुहृत्तमम् । लोभाविष्टो नरो हन्ति, स्वामिनं वा सहोदरम् । लोभाविष्ट मनुष्य अपने पिता, माता, पुत्र, भाई, मित्र, स्वामी एवं सहोदर को भी (धन के लिए) मार डालता है । धन के लोभ में मनुष्य अपने स्वास्थ्य को भी नहीं देखता, और न ही अपने प्राणों की परवाह करता है । वह धन का लाभ हो तो मरने के लिए तैयार हो जाता है । उनका जीवनसूत्र होता है-- चमड़ी जाय, पर दमड़ी न जाय । वह केवल धन सचय करने में ही रहता है, उसको खर्च करना उसे नहीं सुहाता । वह तो भरी हुई तिजोरी देखकर ही प्रसन्न होता है । एक सेठजी थे । दैवयोग से वे बीमार पड़ गए। अपने पिता के इलाज के लिए पुत्र शहर के एक नामी और विशेषज्ञ डॉक्टर को ले आए । डॉक्टर को घर आए देख सेठजी के होश गुम हो गए । वे सोचने लगे – 'यह तो बहुत भारी खर्व में उतार देगा ।' अतः वे चुप न रह सके, पूछ बैठे - " डॉक्टर साहब ! मेरी बीमारी के इलाज में कितना रुपया खर्च होगा ?" डॉक्टर ने हिसाब लगाकर बताया - " सेठजी ! मेरी फीस, दवाइयों और इंजेक्शनों में कुल मिला कर लगभग ६०० रुपये तो खर्च हो ही जाएँगे ।" यह सुनते ही सेठजी ने अपने पुत्रों को पास बुला कर धीरे से उनके कान में कहा - "बताओ तो, मेरे अग्निसंस्कार पर कितना खर्च हो जाएगा ?" एक पुत्र ने बताया१५० रुपये ।” सेठ ने तपाक से कह दिया-- " तो बस मुझे मर ही जाने दो। इलाज की कोई जरूरत नहीं । ४५० रुपये तो बचेंगे ।" सेठ का रवैया देखकर डॉक्टर की हिम्मत फीस माँगने की न हुई । उसने चुपचाप अपना बैग उठाया और वहाँ से चल दिया । ऐसी होती है, लुब्धक की अर्थलिप्सा । वह मर जाना मंजूर करता है, परन्तु पैसा खर्च करना नहीं । वह मरते-मरते भी कुटिलता करता है । धनलुब्धक रात-दिन इसी रौद्रध्यान में रहता है कि किसका धन, कैसे प्राप्त करूँ ? योग भर्तृहरि जंगल में एक वृक्ष के नीचे बैठे थे कि सहसा उनकी दृष्टि कुछ दूर पड़े एक चमकीले हीरे पर पड़ी। उन्होंने अपने मन को समझाकर आश्वस्त किया । कुछ ही देर बाद दो क्षत्रिय मित्र उधर से निकले । दोनों की दृष्टि एक साथ उस हीरे पर पड़ी । दोनों उसे लेने के लिए झपटे। दोनों की तलवारें म्यान से बाहर आ गईं। भर्तृहरि ने दोनों को समझाने की बहुत कोशिश की लेकिन लोभ और क्रोध Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy