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१८ शत्रु बड़ा है, अभिमान
धर्म प्रेमी बन्धुओ !
आज मैं गौतमकुलक के सत्रहवें जीवनसूत्र के विषय में आपके समक्ष विवेचन करूँगा। सत्रहवाँ जीवनसूत्र है
माणो अरी कि ? अर्थात्-शत्रु क्या है ?, मान ! अभिमान मानव जीवन का सबसे बड़ा दुश्मन है। अभिमान-शत्रु से सावधान !
आपको कहीं से यह पता चल जाए कि आपका कोई शत्रु पूरी तैयारी के साथ आ रहा है, तो आप क्या करेंगे? आप एकदम सावधान हो जाएंगे। शत्रु से भिड़ने के लिए आप भी पूरी तैयारी करेंगे । आप सोचेंगे कि शत्रु कहीं चालाकी से अचानक हमला न कर दे।
आप कहेंगे कि हमारा शत्रु कौन है ? बाहर के शत्रुओं का यहाँ जिक्र नहीं है यहाँ तो हमारी आत्मा के शत्रु से मतलब है। 'अरिहन्त' भगवान् का कोई बाहरी शत्रु नहीं होता। वे अपने आन्तरिक शत्रु हैं, वह आप पर जब-तब हमला करता रहता है, वह आपके जीवन के उज्ज्वल चित्र को बार-बार बिगाड़ता रहता है। उस शत्रु का नाम है-अभिमान !
सामान्य व्यक्ति तो अभिमान को शत्रु ही नहीं मानता । वह तो अभिमान को गले से लगाता है, पुचकारता है, अपने जीवन में बहुत बड़ा स्थान दे देता है। सामान्य व्यक्ति ही क्यों, कभी-कभी बड़े-बड़े साधक भी उसके दावपेंच में आ जाते हैं, वे भी अपने होशहवास खोकर अभिमान के चक्कर में पड़ जाते हैं ।
शत्रु का खास लक्षण यह है कि जो हमारा अहित करता है, हमें धोखा देकर अपने चंगुल में फंसा लेता है, हमें अपना गुलाम बना कर नानाप्रकार के कुकृत्यपाप कर्म कराता है। कई बार शत्रु पहले की शत्रुता का बदला लेकर हमें दुखी करता है, घोर संकट में डाल देता है, अनेक प्रकार की यातनाएं देकर हमारा अपकार करता है।
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