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________________ अहिंसा : अमृत की सरिता ३४१ बुरी हालत होती । अहिंसा के अमृत ने ही उनकी परिचर्या के लिए उन्हें प्रेरित किया, जिसके फलस्वरूप अनेक दुःखियों और रोगियों की पीड़ा कम हुई, उन्हें सान्त्वना मिली । उन्हें अपने दुःख निवारण में सहायक देखकर दु:खानुभव कम हुआ। आज मानवता उन लोगों की अपार ऋणी है, जिन्होंने पीड़ित, पददलित, अछत शोषित और चिन्तित मानव बन्धुओं की नहीं, पशुओं की सेवा करके उनके आँसू पोंछे । क्या अब भी अहिंसा अमृत है, अहिंसा भूतल पर अमृत की सरिता है, इसमें कोई सन्देह रह जाता है ? अगर अहिंसा रूपी अमृत इस पृथ्वी पर न होता तो यह सारी पृथ्वी नरक जैसी हो जाती, यहाँ दुःखों और कष्टों के अंबार लग जाते । कोई मनुष्य किसी के वश में न रहता, कोई भी किसी की हितैषी बात न मानता, सर्वत्र मारकाट, भय, आतंक और दंगा फिसाद होता । आज दुनिया में अहिंसामृत के कारण ही इतनी शान्ति और सज्जनता है। . पाश्चात्य विचारक पेन (Penn) कहता है - Love is indeed heaven upon earth; since heaven above would not be heaven without it." "प्रेम वास्तव में पृथ्वी पर स्वर्ग है। ऊपर का स्वर्ग तब तक स्वर्ग नहीं होगा, जब तक वहाँ प्रेमामृत नहीं होगा।" __ अहिंसा अमृत के कितने रूप ? अब देखना यह है कि अहिंसा अमृत तो है, लेकिन किस-किस रूप में वह अपना कार्य करता है ? सबसे पहली और महत्त्वपूर्ण बात अहिंसा के सम्बन्ध में यह है कि यह जिस व्यक्ति के जीवन में उतरती है, उसकी दृष्टि प्राणिमात्र के प्रति या कम से कम मानव मात्र और पंचेन्द्रिय पशुपक्षियों के प्रति आत्मीयता की होनी चाहिए । 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की भावना उसके जीवन में ओतप्रोत होनी चाहिए, मानव मात्र के प्रतिबन्धुता एवं मैत्री भावना उसके रगरग में रमी हुई होनी चाहिए। तभी वह अहिंसा अमृत का विविध रूपों में प्रयोग करके प्राणियों को अपने अमृत का आनन्दानुभव करा सकेगा। एक आचार्य ने अमृत के स्रोतों का पता लगाकर एक उक्ति कही है "वाचामृतं यस्य मुखारविन्दे, दानामृतं यस्य करारविन्दे । दयामृतं यस्य मनोऽरविन्दे, त्रिलोकवन्यो हि नरो वरोऽसौ ॥" 'जिसके मुख कमल में वाणी का अमृत है, जिसके कर-कमलों में दान का अमृत है और जिसके हृदय कमल में दया का अमृत है, वही श्रेष्ठ मनुष्य त्रिलोकवन्द्य होता है।' यह तो निश्चित ही है कि वाणी, हाथ और हृदय में जो अमृत है, उसका मूल उद्गम स्थान या भंडार तो अहिंसा अमृत ही है। तीनों ही अवयव हैं, शरीर के । तीनों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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