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________________ अहिंता : अमृत की सरिता ३३६ ऊपर बताये हुए दोषों और दुर्गुणों को मिटाने और वातावरण में सुख, शान्ति आनन्द और प्रेम को फैलाने में सफल हो सकता है और कोई उपाय इतना कारगर साबित नहीं हो सकता । इसलिए अहिंसा इस भूतल पर अमृत की सरिता है। अहिंसा रूपी अमृत-सरिता में डुबकी लगाकर व्यक्ति अपने आपको तो अमर बनाता ही है, वह जिस किसी का संस्पर्श करता है, उसके जीवन में भी अमृत भर देता है। जिस प्रकार सरिता की धारा स्वयं शीतल रहती है और जो उसके पास आता है, उससे सम्पर्क स्थापित करता है, उसको भी वह शीतलता प्रदान करती है, इसी प्रकार अमृत की सरिता अहिंसा में अवगाहन करने वाला व्यक्ति अपनी आत्मा में शीतलता, शान्ति और आनन्द का अनुभव करता ही है, साथ ही उसके सम्पर्क में जो भी आता है, वह भी आनन्दित हो उठता है। चोर-डाकू अपने से वैर न मानने वालों की भी सम्पत्ति हरण कर लेते हैं, किन्तु उनकी भी दुष्टवृत्ति अहिंसा के अमृत से शीतल हृदय वाले महान् आत्माओं के पास पहुँचकर बदल जाती है। वे उनके प्रभाव से सज्जन बन जाते हैं। ____तथागत बुद्ध के सम्पर्क में आकर अंगुलिमाल डाकू से भिक्षु बन गया, यह अहिंसामृत का प्रभाव ही तो था । वाल्मीकि डाकू महात्मा नारद के सम्पर्क से ऋषि वाल्मीकि बन गया, यह चमत्कार अहिंसामृत का ही तो था । भगवान महावीर के सम्पर्क से चण्डकौशिक विषधर विषवमन करना छोड़कर अमृत का स्रोत बन गया, क्या यह अहिंसा का दिव्य प्रसाद नहीं था ? दूर की बात जाने दीजिए-गांधी युग की बात तो आपमें से बहुत से जानते भी होंगे । गुजरात के मूक लोकसेवक रविशंकर महाराज को कौन नहीं जानता ? उनके हृदय में आतंककारी डाकुओं के प्रति अगाध प्रेमामृत भरा था। अतः भयंकर आतंकवादी डाकुओं से मिलने का निश्चय किया। डाकुओं के मिलने की जहाँ संभावना थी वहाँ वे अंधेरीरात में चल दिये। चारों ओर छाया हआ घना अन्धकार वातावरण को भयानक बना रहा था । दोनों ओर खड़ी टेकरियों के बीच बहता छोटा-सा झरना। किसी महाकाय व्यक्ति की भयंकर आवाज सुनकर अजनबी यात्री रुक गया। चारों ओर से बन्दूकधारी डाकुओं ने उसे घेर दिया। जब उन्होंने बन्दूकतानी तो अजनबी यात्री रविशंकरजी का मुक्त हास्य फूट पड़ा । बोले-'मैं भी तो तुम्हारी बिरादरी का डाक हूँ। दस्युओं ने बन्दूक नीची कर ली और पूछा-"यहाँ क्यों आये हो ?" "आप सबसे मिलने आया हूँ।" महाराज ने कहा । "किस गिरोह के हो ?" डाकुओं के यह पूछने पर उन्होंने कहा- मैं महात्मा गाँधी के गिरोह का हूँ। तुम लोगों को लूटने की सही रीति सिखाने आया हूँ। फिर उन्होंने दस्युओं को अपने पास बिठाकर बड़े मार्मिक शब्दों में कहा- "हमें तो पराधीन बनाने वालों के विरुद्ध वीरता प्रगट करनी चाहिए। निरपराध देशवासियों को लूटने से क्या लाभ ? चलो, मेरे साथ, महात्मा गांधीजी की टोली में शामिल होकर अंग्रेज सरकार के विरुद्ध बगावत प्रारम्भ करो।" रवि शंकर महाराज के आत्मीयता भरे उपदेश और उनके हृदय में निहित अहिंसामृत का Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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