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________________ पाते नरक, लुब्ध लालची ३०३ होती हैं । इन्हें क्रमशः सूर्पणखा, ताड़का और सुरसा की उपमा दी जाती है । पहली . एषणा का मुख्य प्रेरक बल लोभ होता है, दूसरी का काम और तीसरी का अहंकार मिश्रित क्रोध । ये तीनों एषणाएँ जैनधर्म की भाषा में महेच्छाएँ कहलाती हैं । गीता में इन तीनों के प्रेरक बलों को नरक के द्वार कहा गया है त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः । कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत् त्रयं त्यजेत् ॥ ये तीन नरक के द्वार हैं, जो आत्मा के गुणों नष्ट करने वाले हैं। वे हैंकाम, क्रोध तथा लोभ । इसलिए आत्मार्थी को इन तीनों नरक द्वारों का त्याग करना चाहिए । तात्पर्य यह है कि तृष्णा, वासना और अहंता के रूप में प्रविष्ट हुआ निकृष्ट इच्छाओं का अतिवाद मनःक्षेत्र को कलुषित कर देता है, उसे भय और शोक से आक्रान्त कर देता है, इसलिए नरक-स्थल बन जाता है। वे ही फिर उच्छृखल महेच्छाएँ संक्रामक बीमारियों की तरह अनेक बुराइयों को लाकर मन और आत्मा के गुणों का नाश करके सर्वनाशी सिद्ध होती हैं। वित्तषणा, पुत्रैषणा और लोकेषणा की दुष्प्रवृत्तियाँ चिन्तनतंत्र को बुरी तरह जर्जर कर देती हैं। धन के सम्बन्ध में असन्तोष लोभ बनकर फूटता है, वासना का असन्तोष काम कहलाता है और स्वामित्व या अहंपूर्ति का असन्तोष मोह कहलाता है। अहंकार की पूर्ति में कहीं त्रुटि रह जाने का असन्तोष क्रोध के रूप में भी फूटता है । इन तीनों प्रकार के असन्तोष से मानसिक पाप एवं दुष्कर्म अपना पोषण पाते हैं । परिवारों का मधुर मेल-मिलाप और स्नेह इसी के कारण नष्ट होता है । दाम्पत्य जीवन की प्रेमप्रतीति में पलीता लगाने वाले ये ही तीन दुष्ट असंतोष हैं । शान्ति और प्रेम के साथ . मधुर जीवन यापन करते हुए आनन्द की सरिता बहाने और स्वरूप कल्याण करने में संलग्न होने की अपेक्षा येन-केन-प्रकारेण अन्याय, शोषण एवं अनीति से धन इकट्ठा करने की हविस में देश-विदेश मारे-मारे फिरने और प्रेत-पलीत की तरह निरन्तर व्यस्त और व्यथित रहने में यह दुष्ट असन्तोष ही एकमात्र कारण हो सकता है । इस त्रिविध असन्तोष को प्रगति का प्रेरकबल मानना सर्वथा भूल है। उससे तृष्णा, वासना और अहंतापूर्ति रूप उच्छृखल आसुरी इच्छाओं को उत्तेजना तो अवश्य मिलती है पर उनकी पूर्ति कदापि नहीं हो सकती क्योंकि उद्विग्न और असन्तोषी व्यक्ति में शान्तचित्त, आत्मनिरीक्षण, आवश्यक धैर्य और निरन्तर अभ्यास की लगन नहीं होती। वह बावला तो आज ही, अभी ही सब कुछ पाने की तृष्णा में सब पर हावी होने का उपक्रम करता है। उसे इतनी फुरसत कहाँ, जो आत्मनिरीक्षण करे और उन्नति के उच्च शिखर पर पहुँचने के लिए अपने अन्दर उन महापुरुषों जैसे सद्गुणों को बढ़ाए और जब वह सन्तोषी हो जाएगा, तब तो आत्म-परायण व्यक्ति की तरह इन आसुरी इच्छाओं-महत्वाकांक्षाओं को बिलकुल पसन्द नहीं करेगा । उसमें आध्यात्मिक उन्नति की और सद्गुणों को बढ़ाने की महत्वाकांक्षा होगी, किसमें किसी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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