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________________ २६२ आनन्द प्रवचन : भाग ८ "A guilty Conscience is a hell on earth, and points to one beyond.” एक अपराधी चेतना इस पृथ्वी पर नरक है, जो वैसे व्यक्ति को परलोक (नरक) की ओर अंगुलिनिर्देश करता है।" एक और पाश्चात्य विचारक के शब्दों में Hell is but the Colleted ruins of the moral world and sin is the Principle that has mane them. "नरक क्या है ? नैतिक जगत् के संग्रह किये हुए खण्डहर और पाप वह सिद्धान्त है, जिसने इन्हें खण्डहर बनाया है।" वास्तव में देखा जाय तो हिंसा आदि पापों से नीति-धर्म आदि के टुकड़ेटुकड़े हो जाते हैं। उन्हीं के फलस्वरूप मनुष्य यहाँ भी पतित और भ्रष्ट जीवन जीता है जिसे नारकीय जीवन कहते हैं। नरक जीवों को जैसे अज्ञानान्धकार के कारण कोई बोध, सम्यग्ज्ञान या सम्यग्दर्शन प्रायः नहीं मिलता, वैसे यहाँ भी नारकीय जीवन जीने वालों को सम्यग्ज्ञान-सम्यदर्शन की झाँकी नहीं मिलती। इसके कारण ऐसे नारकीय जीवन जीने वाले लोग यहाँ लड़ते-झगड़ते हैं, परस्पर हत्या, चोरी, लूटपाट, व्यभिचार आदि में ही रचे-पचे रहते हैं। ऐसे भयंकर नरक या नारकीय जीवन को प्राप्त कराने वाले दो तत्त्व हैं(१) महेच्छा और (२) लोभ । जिस जीवन में असीमित विशाल इच्छाएं रहती हैं और लोभ रहता है, वह यहाँ भी नारकीय जीवों का-सा जीवन बिताता है, और परलोक में भी उसे नरकगति में नारकीय जीवन मिलता है। महेच्छा और लोभ से प्रेरित नारकीय जीवन की एक झलक जिसके जीवन में इच्छाओं के साथ लोभ का घेरा रहता है, वह इच्छाओं को पूर्ण करने में इतना पागल हो जाता है कि तमाम अनुचित एवं पापकर्मों को करने से नहीं हिचकिचाता। उसकी इच्छाएँ उसे रात-दिन आर्तध्यान और रौद्रध्यान के नारकीय गर्त में डाले रहती हैं। इच्छाओं का कीड़ा बनकर वह उसी गन्दगी में क्षणिक आनन्द मानता है, फिर वही हाय-हाय शुरू होती है। __ अपनी विकृत महत्वाकांक्षाओं को पूर्ण करने के लिए वह एडी से चोटी तक पसीना बहा देता है । ये विकृत महत्वाकांक्षाएँ व्यक्तिगत स्वार्थपरता, (लोभ) वासना तृष्णा और अहंकारिता से लिपटी होती हैं। उन विकृत महत्वाकांक्षाओं को पूर्ण करने के लिए व्यक्ति अपना और समाज का सर्वनाश करके नारकीय जीवन बिताता है । अमेरिका के एक छोटे-से राज्य का नाम है-हैटी। उसका शासनाध्यक्ष 'नियोनियस नुजिलो' इसी विकृत महत्वाकांक्षा और लोभ के रोग से पीड़ित था। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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