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________________ कपटी होते पर के दास २८१ विश्वास हो गया । सेठ से खेत का मूल्य पूछा तो उस धूर्त ने कहा--खेत का मालिक तो २५ हजार कहता है, पर मैं आपको २० हजार में दिला दूंगा।" इस पर सेठ ने कहा-१५ हजार में सौदा तय करा दो एक हजार तुम्हें दलाली दे दूंगा। सौदा तय हो गया १५ हजार में । दस हजार तो सेठजी के पास थे, वे उन्होंने दलाल को दे दिये। दलाल ने कहा-"शेष पाँच हजार आप मामाजी से ले आइए। तब तक मैं इसकी लिखा-पढ़ी कराता हूँ।" सेठ अपने मामा के पास आये। उनसे ५ हजार रुपये मांगे तो उन्होंने पूछा-किसलिए चाहिए ?" सेठ ने कहा- "एक जरूरी काम है। एक खेत देखकर आया हूँ। वहाँ निधि गड़ी हुई है। १५ हजार में खेत मिल रहा है।" मामा सारी बातें सुनकर दलाल की चालाकी समझ गये । वे तुरन्त सेठ के साथ कुदाली फावड़ा लेकर उस खेत पर पहुँचे जहाँ निधि बताई गई थी, वहाँ खोदने लगे। इतने में आवाज आई-"खोदना रोको; नहीं तो मैं भस्म कर दूंगा।" साहसी मामा ने कहा-"तुम सांप हो तो हम आदमी हैं, मार डालेंगे तुम्हें ।" आखिर खोदना न रुका तो वह गिड़गिड़ा कर कहने लगाअब मत खोदिये। मुझे चोट लग सकती है। मैंने तो अपने पेट के लिए यह प्लान रचा था।" अब सेठजी की समझ में आया कि यह सब जालसाजी थी। परन्तु दस हजार रुपये जो वंचक को दे चुके थे, वे व्यर्थ गये। __इस प्रकार धोखेबाजी और जालसाजी के किस्से आए दिन अखबारों में पढ़ते हैं। किसी ने सौ रुपये के नोटों के बदले में हजार रुपये के बना देने का लोभ देकर असली नोट ले लिए और नकली नोट पकड़ा दिये, एक दो को तो दे दिये, बाकी के लोगों के हजम कर लिये। कोई दस तोले सोने का सौ तोला सोना बना देने का चकमा देकर सारा सोना लेकर फरार हो गया। कोई किसी प्रकार से रुपये ठग कर ले गया। ये सब वंचना, प्रतारणा और धोखेबाजी जालसाजी आदि माया की ही बेटियाँपोतियाँ हैं। इन्हें अपनाकर तो व्यक्ति ठगी, झूठ-फरेब और धोखाधड़ी करता है। परन्तु ये सब कपट के धंधे करने वाले व्यक्ति देर-सबेर से उन दुष्कर्मों के फल अवश्य भोगता है, तब वह रोता-पीटता है। दूसरो को ठगने या वंचना करने वाला व्यक्ति एक तरह से आत्म-वंचना करता है, अपने आपको ही ठगता है। पाश्चात्य विचारक जी० बैली (G. Bailey) कहता है-. "The first and worst of all frauds is to cheat oneself.” तमाम छलकपटों में सबसे निकृष्ट छलकपट है—अपने आपको ठगना-आत्मवंचना करना। सौ रुपये का नोट देख दुकानदार ने अपने ग्राहक से कहा- मेरे पास तो ८० रुपये ही हैं।" ग्राहक नोट भुनाने चला गया, क्योंकि दुकानदार को उसे साढ़े दस रुपये ही देने थे । मगर चालाक ग्राहक थोड़ी देर बाद लौट आया और कहने लगा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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