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________________ २८० आनन्द प्रवचन : भाग ८ उसकी पूछ से जरा-सा स्पर्श हुआ था सरिये का। यह देखकर साधु के मुंह से निकला-“धत्तेरे की ! मैं निशाना चूक गया।" . चन्दनगोह ने इसके उत्तर में कहा- "आप मेरे प्रति लक्ष्य चूक जायें तो कोई हर्ज नहीं, प्रभु भक्ति का लक्ष्य न चूकें। परन्तु मैं देख रही हूँ कि आप प्रभु भक्ति का लक्ष्य चूक गये हैं। मैं आपको साधु समझकर आपके दर्शनों को आती थी, मगर आप तो पूरे बक भक्त ही निकले ! आज मैं समझी कि जटा, मृगचर्म आदि धारण करने मात्र से ही कोई साधु नहीं हो जाता। आप बाहर से साफसुथरे हैं, परन्तु आपके अन्तर में मैल भरा है।" यह सुनकर साधु लज्जित होकर बोला--"अरी चन्दनगोह ! मेरी भूल हुई। आओ, मैंने स्वादिष्ट रसोई बनाई है, भोजन कर लो।" _ चन्दगोह-"मुझे नहीं चाहिए, आपका भोजन ! आपको ही मुबारक हो वह ! परन्तु मैं आपको साफ-साफ कह देती हूँ कि आज ही आप अपना बोरिया-बिस्तर बाँध कर यहाँ से चले जाएँ, नहीं तो मैं बस्ती में जाकर लोगों को कह दूंगी कि एक ढोंगी साधु यहाँ चन्दनगोह को पकड़ने का धंधा करता है। फिर आपकी फजीहत होगी।" __ढोंगी साधु उसी क्षण अपना दण्डकमण्डल लेकर वहाँ से नौ दो ग्यारह हो गया। ___सचमुच, मायाचारी लोग, किसी भी लोकश्रद्धेय वेष को धारण करके अपना मायाजाल फैलाते रहते हैं । कोई सांसारिक पदार्थों के लिए, तो कोई धन और भवन के लिए इस वेष का उपयोग करता है। माया : प्रतारणा एवं वंचना के रूप में प्रतारणा और वंचना धोखेबाजी के अर्थ में प्रयुक्त होते हैं । मनुष्य प्रायः लोभ के वश धोखेबाजी किया करता है, अथवा किसी पद, अधिकार, सत्ता या जमीन-जायदाद के स्वार्थ से इस प्रकार की प्रतारणा किया करता है अथवा वाणी से मीठी और चिकनी चुपड़ी बातें करके मनुष्य दूसरों को चकमा देता है। बम्बई के एक व्यापारी ने दूसरे महायुद्ध में तथा बाद में लगभग २५-३० लाख रुपये कमाये थे । चोरबाजारी बहुत ही जोखिम भरी थी, उसे छोड़ कर वे गाँव में मामा के यहाँ आए । उनकी इस कमाई की चर्चा पूरे गाँव में फैल गई । एक मायापटु मनचले ने सेठजी से एकान्त में बातचीत करना चाहा । सेठ ने स्वीकार किया। दूसरे दिन सुबह दोनों खेतों की ओर घूमने निकल पड़े। रास्ते में वह सेठ के भाग्य की तारीफ करने लगा। एक खेत दिखाकर कहा--इसमें निधि गड़ी हुई है। हमारी हैसियत तो है नहीं कि हम इस खेत को खरीद कर निधि को निकाल सकें। आप जैसे भाग्यशाली ही इस निधि के अधिकारी बन सकते हैं।" बस, सेठ उस वंचक की बातों में आ गए। फिर वह खेत के संकेतित स्थल पर सेठ को ले गया; जहाँ से आवाज आई--सेठ ! मैं बन्धन में पड़ी हूँ, मुझे निकालो।" इस पर से सेठ को Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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